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चतुर्थ खण्ड : इकतालीसवां अध्याय ६४७ प्लेष्मलकला के शोथ युक्त होने से या अत्यन्त क्षोभक पदार्थों जैसे गर्म मिर्चममाले, धूम्रपानादि से यह रोग होता है । इस रोग मे प्राय अम्लातिशय (Hyperacidity) पाई जाती है क्वचित् इसके विपरीत स्थिति अर्थात् अम्लाल्पता (Hypo acidity) से भी अम्लपित्त सदृश लक्षण पैदा हो सकते है । अस्तु, अम्लपित्त मे अम्लातिशय, अल्पता या अभाव भी हो सकता है।
लक्षण-अम्लपित्त मे सामान्यतया भोजन का न पचना, विना परिश्रम के थकावट, मिचली, कड़वी या खट्टी डकारें, शरीर मे भारीपन, उदर मे भारीपन, हृदय प्रदेश तथा गले में जलन, भोजन मे अरुचि प्रभृति लक्षण पाये जाते हैं । अम्लपित्त के दो प्रकार है-ऊर्ध्वग तथा अधोग।'
साध्यासाध्यता-यह अम्लपित्त रोग नवीन होने पर यत्नपूर्वक चिकित्सा करने से भी ठीक हो जाता है, पुराना होने पर यह याप्य और किसी किसी मे कृच्छमाध्य भी होता है।
क्रियाक्रम-अम्लपित्त रोग मे सशोधन आवश्यक होता है । एतदर्थ सर्वप्रथम पटोलपत्र, निम्वपत्र, मदनफल सम भाग में लेकर कपाय बनाकर मधु. -मिलाकर वमन कराने के लिये देना चाहिए.। वमन से ऊर्ध्वग दोषो के अथवा श्लेष्म दोष के निर्हरण के अनन्तर पित्त दोष के निर्हरण के लिये मृदु विरेचन देना चाहिए। अम्लपित्त मे रेचनार्थ त्रिवृत् (निशोथ) का चूर्ण ४ माशा मधु से अथवा त्रिफला चूर्ण ६ माशे या कपाय एक घटॉक की मात्रा मे पिलाना चाहिये । नये अम्लपित्त में वमन-विरेचन कराना ही पर्याप्त होता है, परन्तु यदि रोग पुराना हो तो वमन, विरेचन के अतिरिक्त स्थापन एवं अनुवासन वस्ति कर्म भी आवश्यक होता है।
अम्लपित्त रोग मे शीतपित्त एव उदर्द की भाति ही कफ तथा पित्त दोषो को प्रबलता पाई जाती है । अस्तु, वमन एव विरेचन आदि सशोधनो से इनके निहरण हो जाने के पश्चात् संशामक पथ्य, आहार एव औषधि की व्यवस्था
१. अविपाकवलमोत्क्लेशतिकाम्लोद्गारगौरवैः । । हत्कण्ठदाहारुचिभिश्चाम्लपित्तं वदेद् भिषक् ।।
२ रोगोऽयमम्लपित्ताख्यो यत्नात् ससाध्यते नव । चिरोत्थितो भवेद्याप्य. कृच्छ्रसाध्यश्च कस्यचित् ।। तस्य सशोधनं पूर्व कार्य पश्चाच्च भेपजम् । पूर्व तु . वमन कार्य पश्चान्मृदु विरेचनम् ॥ कृतवान्तिविरेकस्य सुस्निग्धस्यानुवासनम् । स्थापनं च चिरोत्थेऽस्मिन् देय दोपाद्यपेक्षया ॥ अम्लपित्त प्रयोक्तव्यः कफपित्तहरो विधि । पाचनं तिक्तबहलं पथ्यं च परिकल्पयेत् ।।