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चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवॉ अध्याय ६८५ वहाँ मूच्छित हो जाता है। छ मास के पश्चात् पुन संज्ञा मे आता है। उस समय उसे बकरी के दुग्ध पर सजीवावस्था मे रखना चाहिए अर्थात् बकरी का दूध पीने को देना चाहिए । छ मास के बाद वह आयु, वर्ण, स्वर, आकृति, बल तथा कान्ति मे देवताओ के सदृश हो जाता है और स्वयं ही उसे सब भाषाएँ प्रकट होती है अर्थात् सभी भापाओ का उसे अनायास ही ज्ञान हो जाता है । उसके नेत्र और कर्ण दिव्य हो जाते है । जो साधारण मनुष्य देख और सुन नही सकते वह भी उसे दिखाई और सुनाई देता है । वह एक हजार योजन तक एक दिन मे चल सकता है । रोग आदि उपद्रवो से रहित दश हजार वर्ष की आयु होती है।
साधारण देश मे उत्पन्न होनेवाली औषधियो के सेवन को भी वही विधि है जो हिमालय पर उत्पन्न होनेवाली दिव्य औषधियो की है। किन्तु इनका वीर्य क्षेत्र के गुणो के कारण तथा कर्म (जरा-व्याधि-नाश आदि ) के मध्यम होने से मृदु होता है। वही औषधियाँ हिमालय के अतिरिक्त अन्य देशो मे उत्पन्न होने पर वीर्य मे मृदु होती है, क्योकि उन देशो की भूमि वह उत्तम प्रभाव नही रखती जो हिमालय पर्वत रखता है । जो वानप्रस्थी उद्यमी तथा संयमी हो वही इन मृदु वीर्य वाली ओपधियो का सेवन कर सकते हैं । असयत पुरुप इन मृदु वीर्य वाली औपधियो को भी सहन नहीं कर सकते। तीक्ष्ण वीर्य वाली ब्रह्मसूवर्चला आदि औपधियो के वीर्य को केवल वही मनुष्य सह सकते है जो हिमालय पर्वत पर रहकर तपस्या आदि का अनुष्ठान करते रहते है। जो लोग नगर आदि या नगर के समीप के वनो मे रहते है तथा संयमी हैं वे बल में मध्यम होते हैं तथा वे मृदुवीर्य ब्रह्मसुवर्चला इत्यादि के वीर्य को सह लेते हैं। जो साधारण पुरुष आलसी तथा विषय जाल मे फैसे होते है वे निवल कोरी और इन औषयो के वीर्य को नही सह सकते ।
जो मनुष्य आरोग्य चाहते है, परन्तु उन औपधियों को ढूंढने अथवा प्रयोग करने में असमर्थ हैं उनके लिए दूसरा रसायन विधान उत्तम है ( इन्द्रोक्त रसायन विधान)।
रसायन ( Geriatrics ) का आलोचनात्मक विवेचनससार की सभी वस्तुएँ नश्वर है। ये क्रमश जीर्ण होते हुए नष्ट हो जाती है। यह एक प्रकार का स्वभाव है अर्थात् स्वभाव से ही नयी चीजें पुरानी होती हुई काल से कवलिन होकर लय को प्राप्त होती है । इमी विधि विधान अनुसार मनुष्य तथा अन्य जीवधारियो मे भी विकार (रोग) उत्पन्न होते है। उनमे क्रमशः जीर्णावस्था या जरावस्था ( वार्धक्य ) की प्राप्ति होती है और मृत्यु के