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भिपकर्म-सिद्धि पीपल के कोपल, गाभारी के फूल कमलगट्टा और उडद प्रत्येक ४० तोला सवको जौकुट कर ४०९६ तोले जल में पकावे । जव चौथाई जल वाकी रहे तो कपडे से छान ले और उसमें गाय का घी २५६ तोले मेदा-महामेदा, जीवक, ऋपभक, काकोली, चीर काकोली, ऋद्धि, वृद्धि, कूठ, पदमाख, रक्त चंदन, तेजपात, पिप्पली, द्राक्षा, कवाछ, नील कमल, नागवे सर, शारिवा, वला, अतिवला प्रत्येक १-१ तोला और मिश्री ८ तोले इनके कपडछान चूर्ण का जल में बनाया हुआ मल्क का योग करके वृत पाक विधि से मद आंच पर पाक कर ले। घृत तैयार होने पर कपडे से छानकर शीशी में भर ले । मात्रा १-२ तोले उतनी ही मिश्री का चूर्ण मिला कर दे ओर ऊपर से दूध पिलावे ।
यह योग उत्तम पौष्टिक तथा वाजीकर है। वीर्य क्षय, शरीर की कृशता और नपुसकता मे इसका प्रयोग करे । (सि. यो स.)
इन योगो के अतिरिक्त वसन्त कुसुमाकर, शिलाजत्वादि वटी, जयमगल रन, पूर्णचन्द्र रम, अपूर्वमालिनी वसन्त, वसन्त तिलक रस आदि का प्रयोग भी ___ यथायोग्य अनुपान से वाजीकरण के रूप में किया जा सकता है।
तैतालीसवाँ अध्याय
रसायन ( Geriatrics ) शाब्दिक व्युत्पत्ति-रस + अयन इन दो गन्दो से रसायन शब्द की निप्पत्ति होती है । रम गब्द के बहुत से अर्थ प्रसङ्गानुसार संस्कृत वाङ्मय मे पाए जाते है । विगद्ध वैद्यक शास्त्र की दृष्टि से विचार तो भी रस शब्द के कई अर्थ हो सकते है, जैसे रस शास्त्र मे रस पारद के अर्थ में, द्रव्य गुण विषय मे पड़रसो के अर्य में और गरीर शास्त्र में रस अन्नो के परिपाक होने के अनन्तर बनने वाले रस के अर्थ मे व्यवहृत होते है। शास्त्र कारो ने रमायन शब्द में व्यवहृत होने वाले रम को इमी अन्तिम अर्थ में ग्रहण किया है। भोजन के सेवन के अन• न्तर शरीर की पाचकाग्नि से पच जाने के पश्चात जो अन्न रस बनता है, उसको रस गल मे अभिहित किया गया है । इस रम के द्वारा सम्पूर्ण धातुओ का पोपण होता है । यह दिन रात गरीर में भ्रमण करता रहता है और यथावश्यक, यथाम्गन रग, रयत, माम, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र प्रभृति वातुओ का पोपण परता हुमा सतत गमनंगील है। एतदर्थ ही इसे रस की संज्ञा दी गयी है, अहरहः