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भिषकर्म-सिद्धि ठंडी हवा का सेवन, शीतल जल से स्नान, धूप का अधिक सेवन, दिन का सोना, वेगो का रोकना, स्निग्ध एवं अम्ल पदार्थो का अधिक उपयोग, मैथुनकर्म शीतपित्त के रोगियो मे विपवत् होते है-अस्तु इन आहार-विहारो का रोगी को पूर्णतया परित्याग करना उचित है । ___रोगी को पथ्य रूप में हल्का एवं सुपच्य आहार देना चाहिये। जैसे पुराना अन्न, मूग, कुल्थी आदि की दाल, जागल पशु-पक्षियो के मासरस, खेखसा, परैला, मूली, पोई का शाक, बेंत की कोपल, अनार, त्रिफला, मधु आदि का सेवन लाभप्रद रहता है । संक्षेप मे श्लेष्मा और पित्त को नष्ट करने वाले कटु-तिक्त एवं कपाय रस द्रव्य रोगी के लिये अनुकूल पडते है।।
उपसंहार-शीतपित्त एव उदर्द एक हठी स्वरूप के रोग होते है। वर्षों तक चलते रहते है। अल्प काल तक चलने वाले रोगो मे तो स्वल्प उपचार से ही लाभ हो जाता है। परन्तु जीर्णकालीन रोगो मे पूर्ण पथ्य-व्यवस्था के साथ उपचार करने की आवश्यकता पडती है। अध्यायोक्त क्रियाक्रम, एकोपधि योग तथा बड़े योगो का यथावसर उपयोग करते हुए रोग का निर्मूलन संभव रहता है ।
इकतालीसवां अध्याय
अम्लपित्त प्रतिषेध रोग परिचय-विरुद्ध भोजन, दूपित भोजन, अत्यधिक अम्ल, विदाह पैदा करने वाला तथा पित्तप्रकोपक भोजन एवं पेय से अथवा पित्त को कुपित फरने वाले कारणो से व्यक्ति का पित्त विदग्ध हो जाता है-जब विदग्ध पित्त की वृद्धि हो जाती है तो उस रोग को अम्लपित्त कहते है । सुश्रुत मै पित्त का स्वाभाविक या प्राकृतिक रस कटु वतलाया है और विकृत हो जाने पर पित्त विदग्ध कहलाता है और उसका रम अम्ल हो जाता है। अम्लपित्त रोग मे यही अवस्था उत्पन्न हो जाती है "अम्लं विदव च तत् पित्तम् अम्लपित्तम् ।"१
आधुनिक दृष्टया इस रोग को आमागय शोथ (Gasterntis ) कहते है। प्राङ्गोदीय ( Carbohydrates ) का पाचन ठीक न होने से, मामागय की १ विरुद्धदुष्टाम्लविदाहिपित्तप्रकोपिपानान्नभुजो विदग्धम् । पित्तं स्वहेतूपचितं पुरा यत्तदम्लपित्तं प्रवदन्ति नन्त ॥