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चतुर्थ खण्ड : उन्तीसवाँ अध्याय
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रस ओर ४ तोला मद्य के साथ पिलाना ) उत्तम रहता है। लहसुन के रस को मधु मिलाकर सेवन भी उत्तम रहता है । '
श्रोणि तथा वृक्क-शूल ( Renal or uterine colic )—
१ एरण्ड सप्तक कपाय - एरण्ड बिल्व, छोदी कटेरी, बडी कटेरी, एवं विजौरे को नीबू की जड, पापाण मौर गोखरू के वीज, पाठा एवं मुलेठी इन सब औषधियो का २ तोला लेकर, ३२ तोला जल में खोला कर शेष जल ८ तोला, इस में घी में भूनी हीग ४ रत्ती, यवक्षार १ माशा और एरण्ड तैल १ तोला मिलाकर पीने को देना चाहिये । इस क्वाथ से श्रोणि प्रदेश मे होनेवाले ( Pelvic region colic ) शूल शान्त होते है ।
२. अश्मरीहर कपाय - ( मूत्रकृच्छ्राधिकार ) वृक्कशूल में लाभप्रद होता है ।
२. हिंग्वादि चूर्ण - घृतभर्जित होग, सोचल नमक, हरड, विडलवण, सैन्धवलवण, तुम्बुरु ( नेपाली धनिया ) तथा पुष्करमूल प्रत्येक एक-एक तोला लेकर कूट- छान कर महीन चूर्ण बना ले | मात्रा ३ माशे । अनुपान दशमूल कपाय | ( चक्रदत्त )
४. कुन्दरु को पत्ती या मूल का स्वरस या कषाय वृक्कशूल शामक होता है । इस चूर्ण का उपयोग पार्श्वशूल. हृच्छूल ( Angina Pectoris ) वस्ति कटि-पृष्ठ शूल (Uterine or Renal colics or Lumbago ) मे उत्तम कार्य करता है |
५ शुण्ठयादि योग - शुण्ठी चूर्ण १ तोला, छिल्का रहित काली तिलका चूर्ण १ तोला और पुराना गुड १ तोला मिश्रित दूध के साथ सेवन करने से योनि या गर्भाशय शूल ( Unterine colic ) मे उत्तम लाभ होता है | किन्तु गर्भाशय के शूल मे विशेष उपयोगी है |
पित्ताशय यकृत्प्लीह शूल - ( Biliary cotics ) मे १ बिजौरे नीबू की जड का क्वाथ या सहिजन की छाल का काढ़ा बनाकर उसमें यवक्षार १ माशा
१. रसोनं मधुसम्मिश्र पिवेत् प्रात प्रकाक्षित. । वातश्लेष्मभव शूलं निहन्ति वह्निदीपनम् ॥
२. नागरार्द्धपल पिष्टं द्वे पले लुञ्चितस्य च । तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरोष्णेन तु पाययेत् ॥ वात गुल्ममुदावर्त्ती योनिशूलन्च नाशयेत् । ।