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चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय
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३ अर्क लवण - अर्क या मदार के पत्र पर तह करके दो पत्तो के बीच मे सेन्वा नमक रखकर एक मिट्टी की हडिका मे कई तहे लगाकर रख दे । हडिका का मुख ढक्कन देकर कपडमिट्टी कर बन्द करके गजपुट मे एक पुट दे । स्वागशीतल होने पर उसको निकाल और सबको पीस ले । यह अर्क लवण नमक योग है । इसके उपयोग से उदरशूल विशेषत यकृच्छुक का सद्य शमन होता है । पुरानी वढी प्लीहा या यकृत् वृद्धि मे भी लाभ होता है। रोगी को कब्ज विशेष रहता हो, पाखाना साफ न होता हो तो भोजन के पश्चात् इसके उपयोग से लाभ होता है । मात्रा - २ माशा | भोजनोत्तर गर्मजल के अनुपान से ।
४ रोहितकादि वटी - रोहेडे की छाल, चित्रकमूल की छाल, अजवायन, तालमखाना प्रत्येक १० - १० तोला, सेंधानमक २ तोला तथा नवसादर १ तोला । सबको कूटकर महीन चूर्ण बना ले। फिर करज-स्वरस की भावना देकर ४-४ रत्ती को गोलियाँ बनाले | मात्रा - १-२ गोली दिन मे तीन बार । अनुपान - उष्ण, जल ।
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५ रोहीतक लौह - हरड बहेडा आँवला, शुण्ठी, मरिच, पिप्पलो, 'चित्रकमूल की छाल, नागरमोथा, वायविडङ्ग प्रत्येक १ -१ भाग, रोहेडे वृक्ष को अन्तर्छाल ९ भाग- - सबका कपडछन चूर्ण कर उसमे लौह भस्म या मण्डूर भस्म ९ भाग मिलाकर उसमे रोहितक के अन्तर्छाल की सात भावनाएँ देकर छाया मे मुखाकर रख ले | मात्रा - ३ रत्ती । अनुपान - दूध या छाछ ।
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उपयोग -- यकृत् प्लोहा की वृद्धि, पाण्डु रोग, जीर्ण विषम ज्वर मे अच्छा लाभ देने वाला योग हे ।
बृहल्लोकनाथ रस - लोकनाथ रम नाम से भंषज्य रत्नावली में तीन पाठ मिलते हैं, इनमे द्रव्य प्राय तीनो मे समान है— कुछ भावनाओ का भेद है । यहाँ पर बृहल्लोकताथ रस नामक पाठ का योग उद्धृत किया जा रहा है
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शुद्ध पारद १ तोला, शुद्ध गन्धक २ तोला लेकर खरल में कज्जली बनावे, चश्चात् उसमे अभ्रक भस्म १ तोला, लौह भस्म २ तोला, ताम्र भस्म २ तोला, कपर्द ( वराट ) भस्म ९ होला मिलावे । पश्चात् घृतकुमारी स्वरस, एव मकोय के रस को एक एक भावना देकर शराव-तम्पुट मे वन्द करके लघुपुट में रखकर अग्नि मे पकावे । पश्चात् स्वाङ्ग-शीनल होने पर खरल करके शीशी में भर लेवे । मात्रा - १-२ रत्ती । अनुपान-भुने जीरे का चूर्ण और मधु, हरीतकी और गुड, अजवायन का चूर्ण एवं शहद, पिप्पली चूर्ण एवं गुड या मधु, मधु या खदिर के काढ़े से ।
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