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भिपकम-सिद्धि
मेद
धातु में प्रविष्ट एवं द्विदोपज कृच्छ्रसाध्य होता है । मज्जाश्रित, क्रिमि तृपादाह्मदाग्नि युक्त एवं त्रिदोषज कुष्ठ असाध्य होता है । कुण्ठपीडित व्यक्ति का शरीर जब फट गया हो, अंग सड़ने लगे हों, जिसके नेत्र लाल हो, जिनको बोलने को शक्ति नष्ट हो गई हो और जो पंचकर्म गुणातीत ( अर्थात् जिस में पंचकर्म न किया जा सकता हो ) माध्य हो जाते है ।"
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श्वित्र े - कुष्ठ के अध्याय में श्वित्र नामक एक रोग का भी उल्लेख पाया जाता है । कुष्ठ के जो उत्पादक कारण बतलायें गये है वे ही कारण चित्र के भी उत्पादक होते हैं । वित्र रोग के कई पर्याय ग्रंथो मे पाये जाते है चरक ने लिखा है "दाणं वारुण स्वित्रं किलास नाम भिस्त्रिभि. " अर्थात् श्वित्र के तीन प्रकार दारण, वारुण तथा किलास है । इस रोग को मावारण वोल चाल में श्वेत कुष्ठ या सफेद दाग ( Leucoderma ) कहते है । त्रि में किसी प्रकार का स्राव नही होता है -यह वातादि तीनो दोपो मे रक्त-मास और मेद धातु में आश्रित रह कर उत्पन्न होते है । वातिक फिलाम न एवं लाल रंग का पैत्तिक कमल या ताम्र वर्ण का, और लोमो को नष्ट करनेवाला होता है । कफज श्वेतवर्ण का भारी ओर खुजली युक्त होता है ।
वित्र के उत्पत्ति भेद से दो प्रकार होते है-त्रणज और दोपज । व्रणज किसी ऋण या अग्निदाह के परिणाम स्वरूप और दोपज वैसे ही होते हैं । वित्र मे केवल त्वचा की ही विकृति पाई जाती है । जैसा कि सुश्रुत के वचनों से सिद्ध है "त्वग्गतमेव किलानम्" । उस प्रकार वित्र रोग में कृमि का कोई सम्बन्ध नही रहता, फलत संक्रामक नहीं होता है । यह एक दोपज व्यावि है दूसरे कुष्ठो जैसा त्रिदोषज नही है | इसमें गरीरगत धातुओं का नाम भी नहीं होता है ।
ऐसे चित्र, जिनमें बाल सफेद न हुए हो, जिसका विस्तार कम हो, जो एक दूसरे से मिले हुए न हो, नवीन और याग से जलने के बाद उत्पन्न हुआ न हो साध्य होते है | इसके विपरीत लक्षणो से युक्त होने पर असाध्य हो जाता है ।
१. साध्य त्वग्रवमानस्थं वातमाविकञ्च यत् ।
मेदमि हहजं याप्य वज्यं मज्जास्थिसथितम् ॥ क्रिमिनृद्दाहमन्दाग्निमयुक्त यत्त्रिदीपजम् ।
प्रन नानां च रक्तनेत्रं हतस्वरम् |
प्रभिन्नं
पञ्चकर्मगुणातीतं कुष्ठ हन्तीह मानवम् ॥ ( मा. ति ) २ वचाम्यतव्यानि कृतघ्नभावा निन्दा गुरुणा गुरुधर्पणञ्च ।
पापक्रिया पूर्वकृतञ्च कर्म हेतु' कियानस्य विरोधि चान्नम् ॥ (चर )