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चतुर्थं खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय
गुह्य स्थान, हाथ-पैर के तलवे और ओष्ठ मे पाये जाने वाले श्वित्र तथा दीर्घकाल का पुराना श्वित्र भी असाध्य होता है।'
क्रियाक्रम-सामान्यतया सभी रोगो मे सर्वप्रथम उपचार 'निदान परिवर्जन' या 'हेतोरसेवा' अर्थात् रोगोत्पादक हेतुओ का परिवर्जन करना होता है। कुष्ठ के उत्पादक हेतुओ मे बहुविध आहार-विहार सम्बन्धी विषमताओ के अतिरिक्त अधर्म या पापाचरण को भी रोगोत्पादक बतलाया गया है। अस्तु, आहार-विहार सम्बन्धी दोपो के दूर करने के साथ ही साथ पाप कर्म का भी पुण्यकर्मो के अनुष्ठान के द्वारा दूरीकरण का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए कई सदाचरणो का उपदेश आचाय वाग्भटने किया है। इनके सम्यक् आचरण से कुष्ठ रोग से मुक्त होना सभव रहता है। जैसे-व्रत-दम-यम-सेवा-त्याग-शील का अभियोग, द्विज-देवता-गुरु की पूजा, सभी जीवो मे मेत्री रखना, शिव-गणेश-जिन-जिनपुत्र-तारा तथा सूर्य देव की आराधना पाप के फलस्वरूप पैदा होने वाले कुष्ठ रोग का उन्मूलन करती है । सूर्य की आराधना से सभी रोग दूर हो सकते है । शरीर सदैव स्वस्थ रखा जा सकता है। सूर्य की आराधना या पूजन विशेपत. कठिन नेत्र रोग और कुष्ठ रोग मे लाभप्रद रहता है । सूर्य की आराधना मे अर्घ्य पूजन एव सूर्य स्तव ( आदित्य हृदय स्तोत्र आदि ) का पाठ उत्तम रहता है । २ सूर्यनतो मे रविवार का व्रत उत्तम रहता है, इस दिन उपवास, लवणवयं आहार और एक समय का भोजन उत्तम रहता है।
रोगी को नया अन्न, दधि, दूध, मद्य, तिल, मछली, नमक, उडद, मूली, गुड, अभिष्यदी आहार एवं विरोधी भोजन तथा शुक्र-क्षय का होना समुचित नही रहता है, अस्तु, ब्रह्मचर्य के साथ जीवन-यापन करते करते हुए उपयुक्त आहार का वर्जन करना चाहिये। अधिक धूप मे काम करना या भट्ठी प्रभृति अग्नि के
१. अशुक्लरोमाऽबहुलमसश्लिष्टमथो नवम् ।
अनग्निदग्धज साध्य श्वित्रं वय॑मतोऽन्यथा ॥ गुह्यपाणितलौष्ठेपु जातमप्यचिरन्तनम् । वर्जनीय विशेषेण किलास सिद्धिमिच्छता ॥ २ व्रतदमयमसेवात्यागशीलाभियोगो द्विजसुरगुरुपूजा सर्वसत्त्वेपु मैत्री। शिवशिवसुततारा (जिनजिनसुततारा ) भास्कराराधनानि प्रकटितमलपाप कुष्ठमुन्मूलयन्ति । ( अ. हृ चि १९)