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भिषकर्म-सिद्धि होता है, उसे शीतपित्त कहते है । इसी को कुछ विद्वान उदर्द भी कहते है। शीतपित्त मे कुछ वायु की अधिकता और उदर्द मे कफाधिक्य पाया जाता है।
इसी से मिलता हुआ एक कोठ रोग भी होता है जो हेतु एवं लक्षण की दृष्टि से गीतपित्त या उदर्द से कुछ भिन्न स्वरूप का होता है । वमन के हीन योग या मिथ्या योग या अति योग से अथवा निकलते हुए कफ एवं अन्न के वेग को धारण करने से इनकी उत्पत्ति होतो है। इनमे लाल रंग के वडे-बड़े अनेक चकत्ते निकलते है । ये अल्प काल तक रहते है- इनमे पुनरुद्भव की प्रवृत्ति नही रहती है । शीतपित्त एवं उदर्द मे बार-बार होने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।२। ___शीतपित्त एव उदर्द का आधुनिक ग्रंथो में ( urticarna) नाम से और कोठ रोग का ( Angioneurotic) नाम से वर्णन पाया जाता है। ये सभी त्रिदोप रोग है। परन्तु जैसा कि नाम से स्पष्ट है ये गीत और पित्त अर्थात् दोनो के प्रभाव से पैदा हो सकते है । फलतः इनमे पित्त और श्लेष्म दोपो की प्रधानता रहती है। माधुनिक विद्वान इनकी उत्पत्ति मे एक प्रकार की अनूर्जता (Allergy ) को कारण मानते हैं, जो किसी असात्म्य द्रव्य के सम्पर्क मे बाने से या भोजन मे सेवन किये जाने ( Unsuitable protien or Histamin producing substances) से उत्पन्न होती है। इसमें कई प्रकार के विपो के जैसे सखिया, क्विनीन मादि के सेवन काल मे, अथवा कृमिदश के प्रभाव से या आत्रगत कृमियो की उपस्थिति से अथवा विकृत मत्स्य, मास, अण्डा, कई प्रकार के शाक के सेवन से अथवा विविध प्रकार के तृणों के पराग के नाक के सम्पर्क में आने से ( Hay fever ) शीतपित्त की उत्पत्ति मुत्यतया पाई जाती है।
क्रियाक्रम:-शीतपित्तादि रोगो मे कडवे तेल का अभ्यंग, उष्ण जल से १ वरटोदशसंस्थान शोफ संजायते बहिः । सकराडुतोदबहुलच्छदिज्वरविदाहवान् ॥ उदमिति तं विद्याच्छीतपित्तमथापरे । वातापिकं गीतपित्तमुदर्दस्तु कफाधिकः ॥ २ मण्डलानि सकण्डुनि रागवन्ति वहूनि च ।
उत्तो० सानुबधश्च कोठ इत्यभिधीयते ॥ ३. बन्यंगक्टुलेन सेक्श्वोप्णेन वारिणा ।
तथानु वमनं वार्य पटोलारिष्टवानकैः ।। त्रिफलापनकृष्णानिरिकश्चात्र शस्यते । नपि. पोत्रा महातिक्त कार्य गोणितमोक्षणम् ॥