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भिपक्कर्म-सिद्धि
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इस रोग की ममता आधुनिक दृष्टि मे Filariasis or Elephantiasis रोग मे है | इसकी उत्पत्ति रूप में आधुनिक विद्वान श्लीपदाणु कृमि ( Microfilaria Bancrofty ) को हेतु मानते है । ये कृमि एक विशिष्ट जाति के मच्छरी (Culex Falgans) के काटने से मनुष्य शरीर में प्रविष्ट हो जाते है । शरीर में प्रविष्ट होकर लसीका वाहिनी, रसकुत्या एव लसीका ग्रंथियों में अपनी वृद्धि करके लमीत्रा वाहिनियों में अवरोध पैदा करते है। इस प्रकार स्थानीय लमिका-मंचय से क्रमण सूजन प्रारंभ हो जाती है । जो आगे चलकर गिला या पत्थर के समान कठोर हो जाती है । सर्वप्रथम लसीका ग्रंथि में सूजन होती है-गोय का परिणाम स्वरूप ज्वर होता है जो प्राय शीत के साथ होता है और दो-चार दिनो तक बना रहता है फिर क्रमश पूरे अग में सूजन हो जाती है । फिर रोग का दौरा चला जाता है, सूजन भी कम हो जाती है, परन्तु कुछ सूजन शेप रह जाती है । रोग का पुनः पुन आक्रमण होता रहता है-ज्वर, लसीका ग्रंथियो का फूलना ओर अंग का सृजन बार-बार होता रहता है। हर दौरे में कुछ न कुछ सूजन गैप रहती चलती है । इस तरह वर्ष में कई दौरे आने के फल स्वरूप उस अग विशेष मे पत्थर जैसी बनी सृजन होकर श्लीपद नामक रोग का स्वरूप प्राप्त हो जाता है ।
पैर के श्लीपद में सर्वप्रथम वक्षण प्रदेश की लसीका ग्रथियां सूज जाती है, रोगी को ज्वर आता है, इसमें पीड़ा भी रहती है । पुन. यह सूजन करु, जानु, जंघा में होते हुए नीचे की उत्तर कर पैर में पहुँच जाती है। रोग की यही मम्प्राप्ति प्राचीन ग्रंथकारो ने बतलाई है ।' श्लीपद रोग में दो विशेषतायें प्राचीनो ने बतलायी है, प्रथम यह है कि यह देगज अर्थात् आनूपदेगज रोग ( Endemic Disease ) है - अन्तु यह रोग सर्वत्र नही प्राप्त होता बल्कि "पुराने जल मे सदा भरे रहने वाले तथा सव ऋतुओ मे शीतल रहने वाले देशों में श्लीपद रोग विशेषतया उत्पन्न होता है ।" दूसरी विशेषता यह है कि "सभी प्रकार के श्लीपद कफ की अधिकता से होते है, क्यो कि मोटापन और भारीपन तथा अवरोध कफ के बिना नहीं होता है ।" इन दोनो विशेषताओ का ध्यान रखते हुए कफघ्न उपचार श्लीपद में लाभप्रद रहता है |
१. यः सज्वरो वक्षणजी भृशात्ति गोफो नृणा पादगत. क्रमेण । तच्छुलीपद स्यात्करकर्णनेत्र मिग्नीष्टनामास्वपि केचिदाहु ॥ २. श्रीण्येतानि विजानीयाच्छ्लीपदानि कफोच्छ्रयात् ।
गुरुत्वं च महत्त्वच यस्मान्नास्ति कफाद्विना ॥ ( मा नि )