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'चतुर्थ खण्ड : इकतीसवाँ अध्याय
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रोग का व्यवहार होता है। इसके निदान में कठिनाई नही होती है क्योकि स्वयं रोगी इस रोग का निदान अपने मुख से इस रोग को तकलीफ रूप मे बतलाता है । इस रोग के दोरे होते है । कुछ दिनो तक रोगी खाता-पीता हुआ स्वस्थ रहता है अचानक एक मास या पद्रह या आठ दिनों के अतर पर रोग का दौरा आता है, रोगी बेचैन हो जाता है, उस के उदर मे तीव्र शूल होता है, डकारो की अधिकता, उदर के ऊपर मात्र मे वायु भर जाने से आत्र की गति एक तरफ से दूसरे तरफ को दिखलाई पडती है । इन आत्र गतियो को स्पश द्वारा भी प्रतीत किया जा सकता है । उदर के ऊपर गोला जैसे उभार दिखलाई पडता है | दबाने से वह आत्र के अवोभाग में जाकर विलीन हो जाता है और पुन उठता है । रोगी को इस दौरे के काल मे वमन होता है, फिर पतले दस्त होते है । उदरशूल शान्त हो जाता है, दोरा निकल जाता है । फिर कुछ दिनो तक रोगी ठीक रहता है । बार बार रोग का दौरा होता है ।
गुल्म रोग स्वयं एक याप्य व्याधि है । इसमे जब तक रोगी पथ्य से रहता है ठीक रहता है-अपथ्य होने से पुन उपस्थित हो जाता है । यदि रोगी क्षीण हो तो उसका रोग असाध्य हो जाता है । चिकित्सा मे कोष्ठ को शुद्धि का ध्यान सदा रखना चाहिये । उसे नित्य वातानुलोमक अथवा मृदु विरेचक औषधियो का उपयोग करना चाहिये । हरीतकी, त्रिवृत् या द्राक्षा आदि सारक या स्र सन योगो का नित्य व्यवहार करना चाहिये । दौरे के काल में वेदना के शमन के लिये तीव्र उदर शूल या उदावर्त्त के समान चिकित्सा करनी चाहिये । दौरे के अवान्तर काल मे निम्नलिखित योगो के उपयोग से पर्याप्त लाभ होता है ।
१. गुल्मकालानल रस अथवा नागेश्वर रस २-४ रत्ती को मात्रा मे
हरीतकी चूर्ण २ माशे और मधु से दिन मे दो बार प्रात - सायम् ।
२ हिंग्वादि चूर्ण अथवा हिंग्वाष्टक चूर्ण ३ माशे को मात्रा मे घी के साथ भोजन के पूर्व ।
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३ कुमार्यासव भोजन के बाद २ चम्मच समान जल मिलाकर ।
४ वैश्वानर चूर्ण ६ माशा ( आमवाताधिकार ) रात मे सोते वक्त गर्म जल से ।
गुल्मकालानल रस के स्थान पर प्रवालपचामृत तथा श्रृंग भस्म का प्रयोग भी १ माशे की मात्रा में उत्तम रहता है । वज्रक्षार का प्रयोग भी भोजन के बाद उत्तम रहता है |