________________
चतुर्थ खण्ड : उन्तोसवाँ अध्याय
परिणाम तथा अन्नद्रव शूलो में करना उत्तम रहता है ।' काजी, अचार, खटाई एवं तिल का वर्जन करना भी उत्तम रहता है ।
५१६
चटनी
ر
x
!
परिणाम शूल तथा अन्नद्रव शूल के रोगी मे सर्वप्रथम केवल क्षीराहार (गर्म करके ठडा किये दूध) पर रखना चाहिये । दूध को मीठा एवं रुचिकारक बनाने के लिये उसमें मिश्री, बताशे या चीनी मिलाकर देना चाहिये । इस प्रकार दूष पर एक-दो सप्ताह तक रोगी को रखकर चिकित्सा करते हुए शीघ्रता से लाभ होने लगता है ।' पश्चात् शूल कम होने पर दूध के साथ ही साथ रोगी को जो का मरुड देना प्रारम्भ करे, जब पोडा और कम हो जावे तो जो की रोटी या गेह-जी के मिश्रित आटे की रोटी और दूध पर रखकर औषधि द्वारा चिकित्सा करता रहे। इस रोग में चावल का प्रयोग रोगी को अनुकूल नही पडता है । नमक का सेवन भी उत्तम नही रहता है । अस्तु, जब रोग मे दो-तीन सप्ताह की चिकित्मा से पर्याप्त सुधार प्रतीत हो तब शाक-सब्जी का प्रयोग करना प्रारंभ करना चाहिये । शाको में परवल, सहिजन, करेला, मूली, चौलाई, बथुआ, चने का नाक एव वैगन आदि अनुकूल पडते है । रोटी-शाक और दूध का सेवन लम्बे समय तक कराते रहना चाहिये । इन शूलो में फल वडे उत्तम पथ्य हैं, सर्वोत्तम फल बनार या वेदाना पडता है । इसके अलावे आँवले का प्रचुर प्रयोग करना चाहिये । चटनी, अंचार, मुरब्बा अथवा चूर्ण के रूप में आंवले का उपयोग उत्तम रहता है । पके आम, मुनक्का, कैथ, चिरींजो, कागदी नीबू, विजौरा नीबू, अमरूद, . सेन आदि फलं बडे उत्तम रहते है। इनका उपयोग रोगी को प्रारंभ से हो कराना चाहिये । बेर का फल यदि लाल वेर या, जंगली बेर हो तो और अच्छा रहता है इसका भी उपयोग परिणाम शूल, अम्लपिस एवं वमन के रोगियो में हितकर होता है | क्षारो का सेवन शूलशामक होता है । अस्तु, सोडा का पानी, सज्जीखार ( Sodu Bicarb ), यवाखार आदि का भी पानी में घोलकर उपयोग करना लाभ दिखलाता है ।
1
1
4
i
{"
"
परिणाम शूल में स्निग्ध द्रव्यों का प्रयोग श्रेष्ठ रहता है । एतदर्थ घी का सेवन उत्तम रहता है । परिणाम शूल में व्यवहृत होने वाली बहुत सी औषधियाँ आती है, जिनके अनुपान रूप मे घृत और मधु का प्रयोग होता है । घी और
१ व्यायाम मैथुन मद्य, वैदल लवण तिलान् । वेगरोध शुच क्रोध वर्जयेच्छूलवान्तर ॥ विरुद्धान्यन्नपानानि जागर विषमाशनम् । रूक्षतिक्तकषायाणि शीतलानि गुरूणि च ॥ मापादिशिम्विधान्यानि मद्यानि वनिता हिमम् । आतपं जागरं क्रोध शुचं संधानमम्लकम् ॥ वर्जयेत्पित्तशूलात स्तथा जीर्णतिलानपि ॥ में र.