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चतुर्थ खण्ड : तीसवाँ अध्याय भर कर रख ले। मृदु कोष्ठ के रोगियो मे केवल नाभि मे लेप कर देने से रेचन होने लगता है। इस चूर्ण का गध लेने से भी सुकुमार एव स्निग्ध कोष्ठ के व्यक्तियो मे रेचन होता है। क्रूर कोष्ठ के व्यक्तियो मे १ रत्ती को मात्रा मे शीतल जल से देने से तीन रेचन होता है, उदावर्त तथा आनाह का शमन होता है।
७ इच्छाभेदी रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, शुद्ध सोहागा, काली मिर्च, प्रत्येक १ तोला, निवृत् की जड तथा सोठ का चूर्ण प्रत्येक २ तोला, शुद्ध जयपाल का चूर्ण ९ तोला। प्रथम पारद और गधक की कज्जली बनाकर उसमे शेष द्रव्यो को सयुक्त करके अर्कक्षोर या अर्कपत्र-स्वरस की भावना देकर, अर्कपत्र में लपेट कर उपले की मृदु आंच में पका ले । फिर चूर्ण करके शीशी मे भर ले । मात्रा १-३ रत्ती तक । अनुपान शीतल जल ।'
यह एक तीन रेचक योग है । इच्छा के अनुसार रेचन कराता है, अस्तु, इसका नाम ही इच्छाभेदी कर दिया गया है। जब तक दस्त कराने की इच्छा हो दस्त - से लौटने के बाद ठडा जल पीता रहे, जब दस्त बन्द करने की इच्छा हो तो उष्ण जल पीते दस्त बन्द हो जावेगा । यदि इस योग से दस्त बहुत होने लगे और वद न हो तो भिण्डी का रस पिलाना। भोजन मे दही-चावल खिलाना और उष्ण वस्त्र मे शरीर को आवृत कर सो जाने से तत्काल दस्त बन्द हो जाता है।
इस योग का अनेक रोगो मे विवन्ध दूर करने के लिये प्रयोग होता है, परतु उदर रोग, आनाह तथा उदावत्त में विशेष क्रिया होती है। __ अपथ्य-वमन, वेगो का रोकना, शमीधान्य (विविध प्रकार की दाल), कोद्रव, शालूक ( विस-मृणाल ), जामुन, ककडी का फल, तिल की खली, सभी प्रकार के आलू, करीर, पीठी के पदार्थ, विवन्धकारक, विरुद्ध, कषाय रस द्रव्य, गुरुपाकी पदार्थों का सेवन निपिद्ध है।
१ गुजैकप्रमितो रसो हिमजलै. ससेवितो रेचयेद् , यावन्नोष्णजल पिबेदपि वर पथ्यं च दध्योदनम् ॥ भै र