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चतुर्थ खण्ड : तीसवाँ अध्याय ५२९ आनाह तथा उदावत रोग में सामान्यतया चलने वाले योगउदावत रोगो में वायु तथा पुरीप के अवरोध तथा आनाह यही दो महत्त्व के रोग है। जिनमे चिकित्सा प्राय तत्परता से करने की आवश्यकता पडती है।' मल-वायु का अवरोध आनाह में भी पाया जाता है । अस्तु, दोनो मे चिकित्सा क्रम सामान्य हो रहते है। अस्तु, यहां पर इन दोनो का विशेष उल्लेख किया जा रहा है । लिखा भी है "उदावत की क्रिया ही आनाह रोग मे करनी चाहिए। आनाह की आमावस्था हो तो प्रथम लंघन करा के फिर पाचन देना चाहिए।"
वायु एवं पुरीष के उदावर्त तथा आनाह रोग मे अघो वायु का निरोध पाया जाता है-स्नेहपान (घृत का पिलाना या घृत के अनुपान से वातानुलोमक चूर्णों का प्रयोग), तेल का उदर पर मालिश, स्वेदन ( उदर का सेक), उदर पर लेप, आस्थापन वस्ति ( Enema) तथा गुडति (Suppositories) का प्रयोग हितकर होता है। गुदवत्ति के कई योग ग्रथो मे पाये जाते हैं। इनमे किसी एक का उपयोग गुदामार्ग से करने पर अद्भुत लाभ दिखलाई पडता है । ___फलवर्ति-मैनफल, पिप्पली, कूठ, वच, सफेद सरसो, गुड और यवक्षार इन द्रव्यो को सममात्रा में लेकर पोसकर वत्ति जैसी एक अगुली की मोटाई की पत्ति बनाकर गुदा मे रखने से मल और वायु की प्रवृत्ति होकर उदावतं दूर होता है।
हिग्वादिवर्ति-होग, शहद और सेधानमक सममात्रा मे लेकर वत्ति बनाकर घृत से अभ्यक्त करके गुदा मे प्रविष्ट करना । यह योग वडा ही उत्तम कार्य करता है। __अगार धूमादिवर्ति-रसोई घर का धुवा, सेंधानमक, पिप्पली, मैनफल, पीला सरसो-इन्हे समभाग मे लेकर गोमूत्र मे पीसकर तिल का तेल मिलाकर वत्ति बनाकर गुदा मे प्रविष्ट करना । १ अधोवातनिरोधोत्थे ह्य दावर्ते हितं मतम् । स्नेहपान तथा स्वेदो वत्तिर्वस्तिहितो मतः ॥ उदावर्तक्रियाऽऽनाहे सामे लघनपाचनम् ।
आनाहेऽपि प्रयुजीत उदावहिरी क्रियाम् ॥ २ मदन पिप्पली कुष्ठ वचा गौराश्च सर्षपाः ।
गुडक्षीरसमायुक्ता फलवत्ति. प्रशस्यते ॥ हिंगुमाक्षिकसिन्धूत्थैः पक्त्वा वरि सुवर्तिताम् ।
गुडक्षीरसमायुक्ता फलवतिः प्रशस्यते ॥ ३४ भि० सि०