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चतुर्थ खण्ड : छब्बीसवाँ अध्याय
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निकालने पर उसको दारुण वात रोग अथवा मृत्यु हो जाने की सम्भावना रहती है । अंतः प्रयोज्य योग
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लघुमंजिष्ठादि कपाय - मञ्जिष्ठा ( मजीठ ), हरें, बहेरा, आँवला. कुटकी, वच, दारूहल्दी, हल्दी ओर निम्व को सम प्रमाण मे लेकर जोकुट करके २ तोले लेकर, ३२ तोले जल मे खोलाकर ८ तोले शेप रहने पर छान कर ठंडा कर मधु मिला कर पिलाना । कुष्ठ तथा वातरक्त मे उत्तम लाभप्रद योग है । बृहन्मजिष्ठादि कपाय का योग वातरोगाध्याय मे आ चुका है । यह लघु से अधिक लाभप्रद होता है ।
निम्बादि चूर्ण - नीम की छाल, गिलोय, आँवला, हरड और बाकुचो प्रत्येक ४ तोले, सोठ, वायविडङ्ग, चक्रमर्द के वीज, पिप्पली, अजवायन, वच, जीरा, कुटकी, खैर की छाल, सेंधा नमक, यवक्षार, हल्दी, दारूहल्दी, मोथा, देवदारु और कुष्ठ प्रत्येक १ - १ तोला । सब को एकत्र कर महीन पीस कर कपडे से छान कर शीशी में भर ले | मात्रा २ माशे । गुडूची क्वाथ के अनुपान से । वातरक्त, कुष्ठ तथा विविध प्रकार के रक्त दोप में परम हितकर होता है । खिन कुष्ट मे विशेष लाभप्रद होता है ।
कैशोर गुग्गुलु — रक्त वर्ण का गुग्गुलु १ प्रस्थ लेकर निर्मल वस्त्र की एक पोट्टली में बाँध ले | हरड, व्हेरा, आँवला प्रत्येक एक-एक प्रस्थ, गुडूची १२८ तोले, जल १९ सेर १६ तोले भर लेकर एक बडे पात्र मे भर कर उसमे गुग्गुलु को पोट्टली लटका दे । वर्तन को अग्नि पर चढा कर पकावे । आधा जल शेष रहने
? अशुद्धो वलिनोऽप्यत्र न प्रस्थात्स्रावयेत्परम् ।
अतित्र तो हि मृत्यु. स्याद्दारुणा वातजामया. ॥ ( वा शि व्य )
यहाँ पर प्रस्थ १३॥ तोले का रहता है, इस प्रकार कुल रक्त निकालने की मात्रा ५४ तोले ठहरती है । अर्थात् आवश्यकता पडने पर बलवान् एव जवान व्यक्तियो मे ५४ तोले तक रक्त निकाला जा सकता है । प्रत्येक रोगी मे या प्रत्येक कर्म मे उतना रक्त निकालने की आवश्यकता नही पडती है । किसी रोगी मे २ तोले से कही पर ४ तोले से अन्यत्र ८ तोले से काम चल जाता है । रक्त के निर्हरण की मात्रा रोगी के बलावल के अनुसार निर्धारित की जाती है । अस्तु, एक सामान्य मात्रा २० से ३० तोले की वातरक्त या कुष्ठ मे बताई गई है । आधुनिक युग में कई रोगो मे शिरावेध के द्वारा चिकित्सा की आवश्यकता पडती है, चिरकालीन हृद्रोग में २० से ३० ओस तक रक्त निकालने का विधान है ।
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३२ भि० सि०