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चतुर्थ खण्ड : अट्ठाइसवॉ अध्याय ५०७ शेष रहने पर उसमें शुगे चूर्ण १ माशा मिलाकर सेवन करना जंघा, ऊरु, पार्श्व प्रदेश, त्रिक प्रदेश और पीठ के शूल में लाभप्रद रहता है।'
पंचसम चूण-शुठी, हरीतकी, पिप्पली, निशोथ तथा काला नमक समभाग में लेकर बनाया चूर्ण । सात्रा ३ मागे से ६ माशे । अनुपान उष्ण जल। यह चूर्ण-उदर विकार तथा आमवात मे लाभप्रद होता है।
वैश्वानर चूणे-सैन्धवलवण, अजवायन २. २ भाग, अजमोदा ३ भाग, मोठ ५ भाग, हरीतकी १२ भाग सब अच्छी तरह महीन कूट-पीसकर कपडछन चूर्ण बनाकर शीगी मे भर ले । साना ३ माशे से ६ माशे। अनुपान-दही का पानी, मट्ठा, काजी, घृत या गर्म जल से । . अलम्बुषाद्य चूर्ण-मुण्डो १ भाग, गोखरू २ भाग, हरड ३ भाग, बहेडा ४ भाग, आंवला ५ भाग, सोठ ६ भाग, गिलोय ७ भाग तथा इन सबके बरावर विधारा की जड या काली निशोथ की जड । सवका महीन कपडछन चूर्ण । मात्रा ३ माशे से ६ माशा । अनुपान उपर्युक्त । यह चूर्ण आमवात तथा वातरक्त दोनो में लाभप्रद होता है ।
आमवातारि गुग्गुलु-एरण्ड तल, शुद्ध गधक, शुद्ध गुग्गुलु, हरड, बहेरा एवं आंवला। इन सवो को सम प्रमाण मे लेकर । प्रथम चूर्ण बनाकर एरण्ड तैल से भावित करके १ माशे की मात्रा मे गोलियां बनाले। १-२ गोली दिन में तीन बार । गर्म जल या दूध से ।
योगराज गुग्गुलु इसका योग वात रोग मे उद्धृत किया जा चुका है।
सिंहनाद गुग्गुलु-त्रिफला का क्वाथ ३ पल, शुद्ध गवक तथा शुद्ध गुग्गुलु १-१ पल, एरण्ड तैल ८ पल सवको लेकर एक कलईदार कडाही में अग्निपर चढाकर पाक करे । फिर ठडा होने पर १-२ माशे की गोलियां बना ले। यह योग सभी प्रकार के वात रोगो मे विशेपत आमवात मे लाभप्रद रहता है। यह दण्डपाणि नामक आचार्य के द्वारा प्रोक्त, सिंह की गर्जना की भांति रोग रूपी हाथियो को भगाने वाला है । अस्तु, इसे सिंहनाद गुग्गुलु की सज्ञा दी गई है । ( च द )। शिवा गुग्गुलु नामक एक दूसरा योग पाया जाता है उसमे भी घटक लगभग यही है।
शुंठीत-सोठ का क्वाथ ८ पल, सोठ का कल्क ३ प्रस्थ, मूच्छित गोघृत २ प्रस्थ लेकर कलईदार कडाही मे पाक करे । फिर घृत को छान किसी शोशे के
१. रास्नाऽमृतारग्वधदेवदारुत्रिकटकरण्डपुनर्नवानाम् । ___ क्वाथं पिबेन्नागरचूर्णमिश्र जघोरुपार्श्वत्रिकपृष्ठशूली ॥ ( यो. र. )
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