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चतुर्थं खण्ड : तेरहवाँ अध्याय
३६६ है। आमलकी--आंवले को आग मे पकाकर उसका भर्ता बना लिया जावे तो सभी प्रकार के कास मे लाभ प्रद होता है। हरिद्रा--की गाँठ आग मे भूनकर उसकी गांठ को मुख मे धारण करने और चूमने से खांसी मे लाभ पहुँचता है। लवड-को आग के ऊपर तपा रख कर सेक कर मुख मे धारण करने से कास मे पर्याप्त लाभ होता है। वासक-अडूसे का पुटपाक से बनाया स्वरस मधु के साथ पिलाना अथवा वासा का कपाय बनाकर उसमे पिप्पली चूर्ण ४ रत्ती और मघु ६ मागे मिलाकर पिलाने से कास का वेग शान्त होता है । इमलो-इमली की पत्ती का काढा हिंगु एवं सेधानमक मिलाकर पिलाने से दुष्ट कास रोग मे भी लाभ होता है। कंटकारी-कटकारी पंचाङ्ग-स्वरस, कपाय या घृतभृष्ट फल श्रेष्ठ कासनाशक होता है। मधुयष्टि-मुलैठी का मुख मे धारण या इसके अनुपान से रसौषधियोगो का प्रयोग कासघ्न होता है । बृहत् पंचमृल अथवा दशमूल का कयाय पिप्पली का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से पार्श्वशूल, कास, श्वास तथा श्लेष्मज काग मे लाभप्रद होता है । कालीमिर्चका पुराने गुडके साथ सेवन । गुडूची-का स्वरस या कषाय का मधु के साथ पिलाने से कास मे चमत्कारिक लाभ होता है ।
वदरीपत्र-बेर की पत्ती को घृत मे भूनकर नमक मिलाकर सेवन । त्रिफला और त्रिकटु के प्रत्येक द्रव्य सम मात्रा मे लेकर २ माशे की मात्रा मे मधु मे चाटना।
कंटकार्यादिकपाय-छोटी कटेरी, बडी कटेरी, मुनक्का, अडूसा, सोठ, छोटी पीपल, कायफल, कचूर, कालीमिर्च, जेवायन और सुगधवाला का क्वाथ मयु और मिश्री युक्त कास मे सद्य. लाभ दिखलाता है। इसका उपयोग कास मिश्रण (Cough Mixtures) के प्रतिनिधि रूप में किया जा सकता है सभी प्रकार के कास मे समान भाव से लाभप्रद होता है। ,
मरिच्यादि चूर्ण या गुटिका-काली मिर्च १ तोला, छोटी पिप्पली १ तोला, दाडिम के फल का छिलका या अनारदाना ४ तोले, यवक्षार ३ तोला और गुड ८ तोला । महीन पीसकर चूर्ण बनाले अथवा गुटिका बना ले । यह मरिच्यादि चूर्ण या मरिच्यादि वटी एक सिद्ध योग है । सभी प्रकार की खांसी मे इसका प्रयोग लाभप्रद रहता है । मात्रा ३ माशे चूर्ण या १-२ माशे की गोलियां दिन में कई बार चूसने के लिए दे। सर्व औषधियो से असाध्य, वैद्य के द्वारा परित्यक्त कास रोग मे, यदि पूय भी खाँसी के साथ निकलती हो तो भी इस योग के प्रयोग से लाभ होता है।