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चतुर्थ खण्ड : चोवीसवाँ अध्याय
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चूर्ण एक पाव का कल्क डाल कर पाक किया घृत । मात्रा और अनुपान पूर्ववत् ।
वातकुलान्तक रस-श्रेष्ठ स्तूरी, शुद्ध मन शिला, नागकेसर का चूर्ण, बहेडे के छिल्के का चूर्ण, शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, जायफल, छोटी इलायची और लवङ्ग प्रत्येक एक तोला । प्रथम पारद-गधक को कज्जली बनावे । सोप चूर्णों को मिलावे। सब एकत्र महीन पोस कर २ रत्ती के परिमाण की गोली बना ले। यह अपस्मार मे बडा श्रेष्ठ योग है विशेपत. आक्षेपयुक्त 'अपस्मार मे । मात्रा दिन में तीन-चार गोली मण्डूकपर्णी के रस और मधु के योग से।
स्मृतिसागर रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, हरताल, शुद्ध मन शिला, ताम्र भस्म । सम भाग में लेकर प्रयम कज्जली बना कर शेप 'द्रव्यो को मिला कर. वचा के क्वाथ या स्वरस तथा ब्राह्मो स्वरस या कपाय से इक्कीस 'भावना दे। कटभी बीज के तेल की एक भावना दे।' घृत और मिश्री के अनुपान से ४ रत्तो की मात्रा में प्रयोग करे। अपस्मार मे एक परम उत्तम योग है।
उपसंहार-यह एक बडा ही रोग है । इसमे रक्त एव पाखाने की परीक्षा करा लेनी चाहिये। यदि रक्त में फिरग या उपदंश आदि की उपस्थिति मिले तो फिरंगनाशक चिकित्सा करते हुए पर्याप्त लाभ होता है। यदि कृमियो की उपस्थिति मिले तो कृमिघ्न उपचार अथवा यदि अभिघात का वृत्त मिले तो तदनुकूल उपचार करते हुए लाभ हो जाता है । ( Antbiotic peni cillin Procaine Injection ) अन्यथा विशुद्ध मानस अपस्मार मे, जो अनैमित्तिक स्वरूप का ( Idiopathic.) होता है, कोई वढिया फल नही दिखलाई पडता है। आज के युग मे जितने नवीन (anti convulsants), योग चलते हैं उनका लाभ भी स्थायी नही रहता, जितने दिनो तक औषधि चलती रहती है, रोग ठीक रहता है, औपवि के छोड देने पर रोग का पुनरावर्तन होने लगता है।
एक वृद्ध आचार्य कहा करते थे कि अपस्मार मे सफल चिकित्सा के लिए किसो सिद्ध पुरुष, महात्मा या तात्रिक की, ही शरण लेना चाहिये । - उन लोगो को आशीर्वाद या प्रयोगो से अपस्मार, अच्छा हो जाय तो उत्तम अन्यथा आधिभौतिक चिकित्सा से कोई विशेप लाभ नही होता है। इस अधिकार मे कथित चिकित्साये भी, जैसा कि ऊपर मे देख चुके है, तात्रिक , प्रयोग ही है । इनके प्रयोग भी अधिक दुर्लभ और दुरूह है, करने से लाभ अवश्य होता है ।