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पचीसवॉ अध्याय
वात-व्याधि प्रतिपेध प्रादेशिक :-विकृत वातजन्य असाधारण व्याधि को वात व्यावि कहते है । चरक ने मामान्यज और नानात्मज भेद से दो प्रकार को व्याधियो का वर्णन किया है । जो व्याधियाँ वातादि प्रत्येक दोप व समस्त दोपो से होती है उन्हें मामान्यज कहते है । ज्वर, अतिसार, अर्श आदि व्याधियाँ इसके उदाहरण है। इसके विपरीत केवल एक ही दोप से उत्पन्न होने वाली व्याधियाँ नानात्मज कहलाती है । यथा-आक्षेपक, पडगुत्व, गृध्रमी आदि रोग केवल वायु से ही होते है, पित्त और कफ से नही। इसी प्रकार दाह, मोप, चोप, पाक आदि पित्त से ही होते है, वायु और कफ से नहीं। तृप्ति, तन्द्रा, निद्रा आदि रोग कफजन्य ही होते है, पित्त तथा वात से नहीं। इस प्रकार शास्त्र मे अस्मी वातात्मज, चालीस पित्तज तथा वीस कफ विकार से नानात्मज व्याधियो का उल्लेख मिलता है। ___ अब यहाँ शका होती है कि चरक और सुश्रुत ने पित्त नानात्मज और कफ नानात्मज व्यावियो का स्वतत्र अध्याय के रूप में वर्णन न करके केवल वात नानात्मज याविगे का ही स्वतत्र मध्याय क्यो लिखा? इस शका के निराकरणार्थ कई उपपत्तियाँ शास्त्र में पाई जाती है जिसमें बात दोप को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। ( देखिये चरक वातकलाकलीयाध्याय सूत्रस्थान में ) । बात को साक्षात् स्वयंभू भगवान् बतलाया गया है। इस प्रकार वायु को सर्व प्रेरक, मति बलवान्, माशुकारी उमके विकारो को टु साध्य होने से प्रधानतया बात-विकारो का ही विस्तार से वर्णन किया है, पित्त तथा कफ का नहीं । गान्धर की उक्ति है कि पित्त और कफ पंगु है वे निष्क्रिय है, सक्रिय केवल बात ही है, वह जहाँ पर जिम धातु या दोप को ले जाना चाहता है ले जाता है, जिस प्रकार बादलो को हवा । "पित्त पग कफः पङ्गु पशवो मलधातव । वायुना यत्र नोयन्ते नत्र गच्छन्ति मेघवत् ।" चरकोक्त वात रोग चिकित्साधिकार में लिखा हैवायु यायु है, वायु ही बल है, वायु ही शरीर का धारक है, वायु व्यापक और सम्पूर्ण क्रियाक्लाप का अधिपति होता हुआ संमार का प्रभु है। जब तक यह स्थानम्ब (पने स्थान में स्थित) और स्वभावस्थ-उसकी गति में कोई रुकावट