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चतुर्थ खण्ड : बीसवाँ अध्याय इनमें वमन कराके या माशय के प्रक्षालन से और पूर्ण निद्रा लेने से स्वयमेव शान्ति मिलती है। __जीणे मदात्यय-मदात्यय नाम से चरक संहिता में इसका वर्णन पाया जाता है। इसके लक्षणो के भेद से चार प्रकार के वर्ग वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक तथा विदोपज का उल्लेख मिलता है। वास्तव मे मदात्यय (chronic Alcoholism ) दीर्घ काल तक मद्य के विधिपूर्वक सेवन न करने से होने वाला एक रोग है। मदात्यय चिकित्सा से यही रोग अभिलक्षित है। जीर्ण मदात्यय के वर्ग में उपद्रव स्वरूप होने वाले दो और रोगो का वर्णन वाग्भट तथा चरक मे पाया जाता है । १. ध्वंसक तथा २. विक्षेपक या विक्षय । मद्यपान के अभ्यास का कुछ समय त्याग करने के पश्चात् मनुष्य सहसा अत्यधिक मद्य का पान करता है तो ध्वंसक तथा विक्षेपक नाम रोग होते हैं । ध्वंसक मे कफ का स्राव, कठ और मुख कीशुष्कता, शब्द का सहन न कर सकना, तद्रा तथा निद्रा की अधिकता तथा विक्षेपक मे हृदय तथा कठ मे अवरोध की प्रतीति, मर्छा, वमन, अग पीडा, ज्वर, तृपा तथा शिर शूल आदि लक्षण मिलते हैं।'
ये दोनो ही दुश्चिकित्स्य होते है।
जीर्णमदात्यय के रोगियो में जिनका ऊपर का ओठ नीचे लटक गया हो ( Facial Paralysis ), शरीर में अति शीत अथवा अतिदाह प्रतीत हो ( Due to Polineuritis ), जिसके मुंह की तेल से लिप्त के समान आभा हो (Due to damaged heart), जिसकी जिह्वा, दाँत, ओष्ठ, नाक काले या नोले ( Due to dilated small veins or Cyauosis) हो, जिसके नेत्र पीले कामला युक्त (Due to Hepaticfailure ) अथवा लाल रंग के से Conjuctivitis chronic due to none abosorption of vitamin A ) हो असाध्य होते है। 3 १. पानात्यय परमद पानाजीर्णमथापि वा।
पानविभ्रममुग्नञ्च तेपा वक्ष्यामि लक्षणम् ॥ (सु० ) २ विच्छिन्नमद्य सहसा योऽतिमात्र निपेवते । ध्वसको विक्षयश्चैव रोगास्तस्योपजायते ॥ श्लेष्मप्रसेक कण्ठास्यशोप शब्दासहिष्णुता। तन्द्रा निद्रातियोगश्च ज्ञेय ध्वसकलक्षणम् ॥ हृत्कण्ठरोग सम्मोहश्छदिरङ्गरुजा ज्वर । तृष्णा कास शिर शूलमेतद्विक्षयलक्षणम् ॥ (च०)
३ हीनोत्तरौप्ठमतिशीतममन्ददाहं तैलप्रभास्यमपि पानहत त्यजेत्तु । जिहोष्ठदन्तमसित त्वथवापि नील पोतं च यस्य नयने रुधिरप्रभे च ॥
(सु० ३.४७ )