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चतुर्थ खण्ड : वाइसवॉ अध्याय
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पाद-दाह का वर्णन वातरोगाध्याय मे भी पाया जाता है। वहां पर चिकित्ला रूप में नागकेशर के काँटो को पीसकर शतधौतवृत में मिलाकर पैरो में लेप करना अथवा दशमूल के काढे से पैर के तलवे का धोना अथवा मक्खन का लेप कर' स्वेद करना बतलाया गया है । निरावेध के द्वारा रक-निहरण तथा दाह कर्म का भी विधान पाया जाता है। विभीतक फल के चूर्ण का अवधूलन, चूर्ण को पानी में पीसकर लेप या विभीतक फल की मज्जा का लेप हाथ-पैर के दाह का नामफ होता है।
वाइसवॉ अध्याय
भूत-विद्या चिकित्मा शास्त्र मे पठित रोग दो वर्गों के मिलते है। एक वे जिनमे पैदा होने वाले लक्षणो की दोप-दूष्य-हेतु-पूर्वरुप-उपशय-तथा सम्प्राप्ति के अनुसार तथा शारीर एवं मानस दोपो के अनुसार उनको तर्कसंगत व्याख्या की जा सके और समझा जा सके। इसके विपरीत कुछ सीमित व्याधियो का एक दूसरा वर्ग भी होता है। जिसमें अद्भुत या विचित्र स्वरूप के लक्षण पैदा होते है। इनमें मिलने वाले लक्षणो या लक्षण-समुदाय की उपपत्ति त्रिदोषवाद के सिद्धान्त के अनुसार या सत्त्व, रज एवं तम प्रभृति मानस गुणो के आधार पर समझ मे नही भाती है।
जसे-कोई व्यक्ति जिसने कभी भी सस्कृत भाषा न पढी हो और वह, अचानक रोग के आवेश मे संस्कृत वाणी मे प्रवचन करने लगे। अथवा कोई ऐसा व्यक्ति जिसने कभी भी फारसी न पढी हो रोग को अवस्था मे सहसा फारसी मे बोलने या लिखने लगे। ऐसे रोगियो में अथवा उनमे उत्पन्न होने वाले लक्षणो का बोधगम्य एव तार्किक समाधान नही हो पाता है। इस प्रकार के असाधारण रोगो के लिये एक स्वतत्र वर्ग की ही कल्पना आयुर्वेद शास्त्रज्ञो ने
१ शिराव्यध. पाददाह पादकण्टकवत् क्रिया ।
शतधौतघृतोन्मिश्रेर्नागकेसरकण्टकै. ॥ पिष्ट प्रलेप सेकश्च दशमूल्यम्वुनेष्यते । आलिप्य नवनीतेन स्वेदो हस्तादिदाहहा ॥ (च द.)