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भिपकम-सिद्धि सूचीवेध-यूई को नोक मे देह में कोचना । माज कल की मूचीवेध द्वारा किमी निरापद ओपधि की सुई देना इस अवस्था में एक उचित कर्म है। इस क्रिया से बेहोग रोगी होग मे मा जाता है।
केश और लोमों का लुंचन-एक दो केगोको पकटकर नोचने में भी लाभ होता है।
नाक और मुम्ब बंद करना, अंडको रगटना, दांत मे काटना । नस्रो के मध्य में दबाना । गलाका ने दाह कर्म ( जलाना ) तथा केवांछ की फली का गरीर में घर्षण करना प्रभृति क्रियावो से मूच्छित रोगी मंजा में या जाता है।
वेगान्तरकालीन चिकित्मा-मू -भ्रम-अनिद्रा तथा संन्याम रोगो मे रसायनाधिकार की दोपवियो का प्रयोग करना लाभप्रद रहता है।
मृा में भेपज-५ त्रिफला चूर्ण : मागे को रात्रि में मधुके माथ चाटना २. अदरक को पीसकर १ तोला योर गुट २ तोला का प्रात काल में सेवन ३ पिपली चूर्ण १॥ माशे मधु के माथ मेवन ४. जी का सत्तू बगवर शक्कर मिलाकर नारिकेल जल के (डाव के पानी के ) माथ पीना 1 ५ कोल-मज्जादि चूर्ण-बेर के फल को मूसी मज्जा, काली मिर्च, सम और नागकेसर का राम प्रमाण में बना चूर्ण। मात्रा ३ मागा । अनुपान गोतल जल । इन भेपजो से मूर्टी गान्त होती है। भ्रम-(चक्कर आना)
दुरालमास्वरस या कपाय- दुरालभा अथवा यत्रामा का स्वरन २ तोला लेकर ३२ तोले जल में खोलाकर ८ तोले शेप रहने पर २ ठीला मिश्री और १ तोला गोवृत मिला कर मेवन करने में चक्कर का आना शान्त होता है।
कौम्म सपिः-एक मौ वर्ष का पुराना कीम्भ वृत कहलाता है। इसको ३ मार्ग की मात्रा में गाय के दूध में याडकर पीना श्रम तथा मृी को धान्न करता है।
प्रवालपिष्टि योग-प्रवालपिष्टि २ २० बोर गुटची सत्त्व १ माशे की माया में एक माया बनाकर ऐमी दो मात्रा सुबह-गाम, यावल का चूर्ण २ मागे ' मधुना हन्युपयुक्ता त्रिफला गत्री गुदाईकं प्रातः 1
सप्ताहात् पथ्यभुजो मदमू कामलोन्मादान् ॥ २. चक्रवद् चमती गाय भूमो पतति सर्वदा ।
चमरोग ति यो रक्तपित्तानि यात्मक ॥ (मा नि.) ३. दुरालभा-यपायस्य वृनयुक्तम्य मेवनान् ।
भ्रमो नश्यति गोविन्दरमरणादिव पातकम् ।। (वे. जी )