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भिषकर्म-सिद्धि
७ इस रोग मे धातु-क्षय प्रवान हेतु के रूप में पाया जाता है यह क्षय अनु लोम या प्रतिलोम द्विविध हो सकता है । अनुलोम रस या रक्त के नाश से प्रारंभ होकर क्रमण. उत्तरोत्तर पाये जाने वाले धातुवो का अर्थात् रक्त, मास, मेद, अस्थि, मज्जा और अतमे शुक्र या वीर्य का क्षय होता है । प्रतिलोम मे शुक्रक्षय का प्रारंभ होकर क्रमण उससे अवर धातुवो का अर्थात् मज्जा, अस्थि, मेद, मास, रक्त और अंत मे रस का क्षय होता है । इस प्रकार धातुक्षय इस रोग के हेतु तथा प्रधान रूप मे पाया जाता है अस्तु राज- यक्ष्मा रोग का दूसरा पर्यायक्षय रोग अथवा शोष रोग ( धातुवो का सुखाने वाला रोग ) बनता है । इस रोग मे वलक्षय, भारक्षय प्रमुखतया पाया जाता है । अस्तु चिकित्सा में वल और मास प्रभृति धातुवो को बढाने वाला उपचार अपेक्षित रहता है ।
८. चूंकि यह रोग शाप के कारण चन्द्रमा को हुआ था अस्तु इस रोग को जीतने के लिए देव व्यपाश्रय चिकित्सा का वडा महत्व है, आधिभौतिक (Materialistic treatment ) के साथ-साथ जिन क्रियावो के द्वारा प्राचीन काल मे राजयक्ष्मा रोग को दूर किया गया उन आधिदैविक अर्थात् मनोनुकूल सम्पूर्ण वेद-विहित क्रियावोको करते हुए उपचार करना चाहिये । ये देव-व्यपाश्रय उपाय निम्नलिखित है । इन उपायों से यक्ष्मारंभक दोपो की शान्ति होती हैं । इच्छित और मनोज्ञ ( मनका अच्छा लगने वाले ) मद्य का सेवन, गध का सूचना, रमणीय मित्रो तथा प्रमदावो का दर्शन, कानो के प्रिय लगने वाले गीत, वाद्य, हर्पण (प्रसन्न करने वाले आहार-विहार-आचार - कथा प्रसग ), आश्वासन ( तसल्ली देना ), ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान, दान, तपस्या, देवता की अर्चना, गुरुजनो का पूजन, सत्यभाषण, अहिंसा, दूसरे के कल्याण की भावना, वैद्य और धर्म-शास्त्रज्ञ के कथनो के अनुसार चलना आदि । १
राजयक्ष्मा रोग के पर्याय - रसादि धातुओ के शोषण होने से रोग का नाम शोप, धातु-क्रियाओ के क्षय होने से रोग का नाम क्षय हो जाता है,
१ इष्टैर्मधर्मनोज्ञाना मद्यानामुपसेवने । सुहृदा रमणीयाना प्रमदानाञ्च दर्शनै. ॥ गीतवादित्रशब्दैश्च प्रियश्रुतिभिरेव च । हर्पणाश्वासनैनित्यं गुरुणा समुपासने. ॥ ब्रह्मचर्येण दानेन तपसा देवतार्चनं । सत्येनाचारयोगेन मङ्गलैरप्यहिंसया ॥ वैद्यविप्रार्चनाच्चैव रोगराजो निवर्त्तते । यया प्रयुक्तया चेष्टया राजयक्ष्मा पुरा जित ॥ ता वेदविहिनामिष्टामारोग्यार्थी प्रयोजयेत् । (च.चि )