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चतुर्थ खण्ड वारहवाँ अध्याय
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होने से इसके
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राजयक्ष्मा रोग मे शुक्र ( वीर्य ) और मल की रक्षा का सदैव ध्यान रखना चाहिये | यह सिद्धान्त केवल राज- यक्ष्मा तक ही सीमित नही अपितु सभी प्रकार के दीर्घकालीन और क्षीण रोगियो मे उनके शुक्र और मल को रक्षा करना परमावश्यक कर्त्तव्य चिकित्सक का रहता है । इसका कारण यह है कि मनुष्य का वल शुक्र के अधीन रहता है क्योकि शुक्र समस्त धातुओ का अन्तिम तथा सारभूत पदार्थ है । चरक ने भी लिखा है आहार का परम धार्म शुक्र होता है उसकी रक्षा करना सभी आत्मवान् पुरुपो का कर्त्तव्य है— उसके अधिक क्षय होने मे बहुत से रोग हो सकते है अथवा व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है । अस्तु स्वस्थ व्यक्ति को भी शुक्र सरक्षण ब्रह्मचर्य और स्त्री-सयम के द्वारा करना चाहिये रोगी और दुर्वल के बारे मे तो उसमे शका का स्थान ही नही है । 'मलायत्तं हि जीवनम्' का तात्पर्य यह है शरीर का स्तभक अधोन क्षीण मनुष्य का जीवन रहता है । चरक ने लिखा है कि रोगी मे क्षोणावस्या मे कोष्ठ-सश्रित अग्नि अन्न का जो पाक अधिकाश मल बनता है और अल्प मात्रा में ओज या बल का निर्माण होता है । अर्थात् रोग की महिमा से अन्न का अधिकाग किट्ट बनता है और प्रसादभूत धातु अत्यल्प मात्रा मे निर्मित होता है । अस्तु सभी क्षीण रोगियो मे विशेषत राजयक्ष्मी मे मल की रक्षा मे चिकित्सक को तत्परता रखनी चाहिये । सर्व धातुओ के क्षय से आर्त रोगी मे उसका बल विट् या मल ही होता है । इस मल का रूक्ष, तीव्र या तीक्ष्ण रेचन देने से या शोधन करने से रोगी का बलक्षय होकर मृत्यु की संभावना रहती है । अस्तु राजयक्ष्मा रोग मे क्षीण रोगी को कदापि सशोधन ( वमन और विरेचन ) नही करना चाहिये | और यदि विवध हो तो स्निग्ध, मृदु और त्र सन औपधियो जैसे --- अमलताश, मुनक्का, निशोथ, अजीर आदि से घृत + मधु + शक्कर आदि से हल्का स्रसन कराना चाहिये । अथवा गुदवति, आस्थापन वस्ति, अनुवासन देकर कोष्ठ की शुद्धि करनी चाहिये ।
'राजयक्ष्मा के करता है उसमे
१ शुक्रायत्त वल पुमा मलायत्त हि जीवनम् । तस्माद्यत्नेन सरक्षेद्यक्ष्मिणो मलरेतसी ॥
२. आहारस्य पर धाम शुक्र तद्रक्ष्यमात्मनः । क्षये ह्यस्य बहून् रोगान् मरण वा नियच्छति ॥ (च )
३ तस्मिन् काले पचत्यग्निर्यदन्न कोष्ठमश्रितम् । मल भवति तत्प्राय कल्पते किंचिदोजसे || तस्मात्पुरीप सरक्ष्यं विशेपाद्राजयक्ष्मण । सर्वधातुक्षयार्तस्य बल तस्य हि विड्वलम् || ( च० चि०८. )