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चतुर्थ खण्ड : तेरहवाँ अध्याय
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वातिक, श्लैष्मिक तथा क्षतजो का समावेश हो जाता है और दीर्घकालीन कासो मे क्षयज कास (Tubercular Bronchitis ) जिसके परिणाम स्वरूप क्षय रोग पैदा होता है अथवा जराकास ( Bronchiectasis ) वृद्धावस्थागत फुपफुल तन्तुवो के स्थितिस्थापकत्व ( elasticity ) की कमी और फुफ्फुस सौत्र (Lung Fibrosis ) के कारण उत्पन्न कासो का समावेश समझना चाहिए । इनमे रूक्ष कास या वातिक कास ( Cough without expectoration ) श्वसनेतर फुफ्फुसेतर अंगो के विकार मे ( Extrarespiratory origin ) तथा शेष सभी प्रकार के कास फुफ्फुस एव श्वसन सस्थान जात ( Respiratory origin) के पाये जाते है । श्वसनेतर कहने का तात्पर्य उन अगो से है जिनका श्वसन क्रिया से साक्षात् सम्पर्क नही है । जैसे विबध आदि पचन संस्थान के विकारो में, गले के विकार जैसे गल शोथ ( Pharyna gitis ), तुण्डिकेरी ( Tonsillitis ), कण्ठशालूक ( Adenoids ), फुफ्फुमावृति शोध आदि में शुष्क कास पाया जाता है । शेष अन्य प्रकार के कासो मे अर्थात् कफयुक्त ( वलगमदार ) कास मे साक्षात् श्वसन संस्थान ही विकार के स्थल होते है । अस्तु चिकित्सा मे भेद करना पडता है । कास का प्रारंभ वास्तव मे शुष्क कास या वात कास से ही होता है आगे चल कर वह श्लैष्मिक का रूप धारण करता है । वातिक कास का रोग ही अधिकतर मिलता है पैत्तिक या इलैष्मिककास अपेक्षाकृत कम मिलते है । वातिक के परिणाम स्वरूप श्वास तथा हिक्का रोग और श्लेष्मकास का परिणाम स्वरूप फुफ्फुस क्षय होता है ।
कास रोग मे क्रियाक्रम और कुछ योगो का उल्लेख दोपभेद से पृथक् पृथक् करके यथाशास्त्र आगे दिया जा रहा है ।
क्रियाक्रम - वातिककास में, रोगी रूक्ष रहता है अस्तु उसको सर्वप्रथम वातघ्न औषधियो से सिद्ध स्नेह से ( स्निग्ध ) चिकित्सा करनी चाहिए । स्तिग्व पेया, यूप (दाल), मासरस खिलावे । वातघ्न लेह, धूम, अभ्यंग, स्वेद, सेक अवगाहन कर्म से चिकित्सा करे । यदि रोगी को विवध हो तो वस्ति देकर उसकी कोष्ठ शुद्धि करे ।
पित्तानुबध मे भोजन के बाद घृत या दूध पिलाना ( ऊर्ध्व या औत्तरभक्तिक घृत या क्षीर ) उत्तम होता है । श्लेष्मानुवव मे एरण्ड तेल जैसे स्निग्ध विरेचन के द्वारा उपचार करे । १
१ केवलानिलजं कास स्नेहैरादावुपाचरेत् । वातघ्नसिद्धे स्निग्धैश्च पेयायूषरसादिभि || लेहे धूमैस्तथाऽभ्यङ्गस्वेदसेकावगाहने । वस्तिभिर्बद्धविड्वात सपित्त तूर्ध्वभक्तिकैः ॥ घृतै. क्षीरंश्च सकफं जयेत्स्नेहविरेचनं । ( वा० चि० ३ )