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भिपकर्म-सिद्धि
त्रिलिङ्ग मात्र से युक्त क्षयी रोगी मे यदि मास वल बहुत क्षीण हो गये हो तो चिकित्सा मे वर्जन करना चाहिये परन्तु सम्पूर्ण लक्षणो से उपद्रुत रोगी मे भी मास एवं बल का क्षय न हो तो चिकित्सा करनी चाहिये । वह साध्य रहता है ' ।
क्रियाक्रम - सभी प्रकार के राजयक्ष्मा का रोग त्रिदोपज होता है अस्तु दोपो का वलावल देखते हुए और विभिन्न अवस्थावो का विचार करते हुए शोप रोग की चिकित्सा करे ? |
ज्वराधिकार मे ज्वर के शमन के लिये जो विधियां बतलाई गई है | सभी यक्ष्मा रोगी के ज्वर ओर दाह की अवस्थामे उत्तम होती हैं और व्यवहार मेलाई जा सकती है । अर्थात् क्षय रोग मे जीर्ण ज्वर की सम्पूर्ण चिकित्सा ज्वर के शमन के लिये करनी चाहिये ।
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राजयक्ष्मा मे प्रथम ज्वरादि उपद्रवो की चिकित्सा ज्वररोगाधिकारोक्त योगो से क्वाथ, चूर्ण, आसव, अरिष्ट और रसादिको के प्रयोग से करनी चाहिये । इन ज्वरादिक उपद्रवो के शान्त होने के साथ ही साथ राजयक्ष्मा मे जो गोप ( धातुवो के चय या शोष ) पाया जाता है उसका उपचार करना चाहिये ।
शोधन निषेध -- यदि रोगी वलवान् हो और रोग मे दोपो की अधिकता हो तो उसका स्नेहन स्वेदन करा के स्निग्व वमन और विरेचन के द्वारा दोपो का निर्हरण करना प्रशस्त रहता है, परन्तु यदि रोगो क्षीण हो जैसा कि प्राय राजयक्ष्मा रोग मे पाया जाता है उसमे सशोधन ( पंचकर्म ) कदापि नही करना चाहिये । यक्ष्मा में सशोधन विप के सदृश अहित करता है" ।
१. सर्वैरर्थैस्त्रिभिभिर्वापि लिर्मासवलक्षये । युक्तो वर्ज्यश्चिकित्स्यस्तु सर्वरूपोऽप्यतोऽन्यथा ॥ ( च चि)
२ सर्वस्त्रिदोषजो यक्ष्मा दोषाणा च बलाबलम् । परीक्ष्यावस्थिकं वैद्यः शोपिणं समुपाचरेत् ।
३ ज्वराणा गमनीयो य पूर्वमुक्तः क्रियाविधिः । यक्ष्मिणा ज्वरदाहेषु स सर्वोपि प्रशस्यते ॥
४ उपद्रवा ज्वराद्यास्ते साध्या स्वं स्वैश्चिकित्सितैः ।
तेषु शान्तेषु रोगेषु पश्चाच्छोपमुपाचरेत् ॥ ( चर. चि. ८ )
५ दोपाधिकाना वमनं शस्यते सविरेचनम् । स्नेहस्वेदोपपन्नाना सस्नेहं यन्न कर्पणम् ॥ वलिनो बहुदोपस्य पच कर्माणि कारयेत् । यक्ष्मिण. क्षीणदेहस्य तत् कृतं स्याद् विपोपमम् ॥