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चतुर्थ खण्ड : बारहवाँ अध्याय
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ज्वर और दाह के शमन के लिए दूसरा साधन अवगाहन का है । तैल, दूध ( वकरी का) अथवा जल से भरे कोष्ठ ( Tub) मे डुबकी लगाकर स्नान करना अवगाहन कहलाता है । इस क्रिया से स्रोतसो के बद हए मुख खल जाते है। रोगी के बल की वृद्धि होती है, तथा वह पुष्ट होता है । तैल से भरी टकी मे नहाये और तैल का सुखपूर्वक हल्के हाथो से शरीर का मर्दन करे। औषधि सिद्ध तेल जैसे लाक्षादि तैल, चन्दन वला-लाक्षादि या वासा-चन्दनादि तैल, उत्तम रहते हैं। यदि ये सुलभ न हो तो जितने भी खाद्य तेल मिल सकते है, उनका मिश्रण बनाकर टकी मे भर कर अवगाहन करना चाहिये । तैल के इस क्रिया को बहि स्पर्शन या बहि मार्जन कहते है।' वहिर्जिन के लिये यह विधि सुलभ न हो तो जीवन्त्यादि उत्सादन-जीवन्ती, शतावरी, मजिष्ठा, अश्वगध, पुनर्नवा मूल, अपामार्ग, जया, मुलैठो, बला, विदारीकदै, सर्षप, कूठ, चावल, अतसी के बीज, उडद, तिल, किण्व समभाग में लेकर चूर्ण करके इनसे तीन गुना जी का आटा लेकर दही मे पीसकर थोडा मधु मिलाकर पूरे बदन पर उबटन जैसे लगाना चाहिये । इससे रोगी पुष्ट होता है उसके वल और वर्ण की वृद्धि होती है। स्नान-पीले सरसो के कल्क तथा जीवनीय गण की
औषधियो से शृतजल मे सुगधित द्रव्यो को छोडकर इस जल को किसी बडे वर्तन म भरकर उसमे भली प्रकार स्नान कराना भी इसी प्रकार लाभप्रद होता है । इस जल को ऋतु के अनुसार शीत ऋतुओ मे उष्ण तथा उष्ण ऋतुवो मे शीतल कर लेना चाहिये।
इन क्रियायो से हल्का व्यायाम, निष्क्रिय परिश्रम (Passive exercise) हो जाती है, त्वचागत ज्वर का शमन हो जाता है, शरीर का उत्तम प्रोक्षण या प्रमार्जन ( Sponging) हो जाता है। तैलो के अभ्यग से सूर्य-प्रकाश की उपस्थिति में पर्याप्त मात्रा मे जीवतिक्तियो (Vit A. & D ) का निर्माण और शोपण होने लगता है फलत शरीर पुष्ट होता है। अस्तु १ मास का सेवन २. मद्य का सेवन ३ बहिर्जिन ४ तथा वेगो के अविधारण (अपान, मल, मूत्र, कास, छीक आदि वेगो का न रोकना) से राजयक्ष्मा रोग दूर होता है।
१ वहि स्पर्शनमाश्रित्य वक्ष्यतेऽत पर विधिः । स्नेहक्षीराम्बुकोष्ठेपु स्वभ्यक्त-,
मवगाहयेत् । स्रोतोविबन्धमोक्षार्थ बलपुष्ट्यर्थमेव च । (च. चि ८) २ वारुणीमण्डनित्यस्य बहिर्मार्जनसेविन. ।
अविधारितवेगस्य यक्ष्मा न लभतेऽन्तरम् ।। २३ भि० सि०