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भिपकर्म-सिद्धि अवस्थानुमार यथायोग्य जीर्ण ज्वर के रोगियों में कराना चाहिये । इस प्रयोग से तीन लाभ होते है-(क) बहिर्गिगत (त्वचा गत ) ज्वर का गमन होता है। (ख) गरीर के अगा को सुख मिलता है और बल बटता है । त्वचा से इन स्नेही का गोषण होकर कई पोषक तत्वो की प्राप्ति (Vit A D specially) होती है, शरीर पुष्ट होता है । (ग) त्वचा का रक्षण होने में जो वर्ण विकृत हो गया रहता है वह प्राकृतावस्था में या जाता है। वास्तव मे लम्बी अवधि तक उपवामादि के कारण जीर्ण ज्वर में सभी तन्तु बुभुक्षित रहते है-इन क्रियाको से इन बुभुक्षित तन्तुबो का गीता से याप्यायन होता है, जिससे वल वढता है।'
जीर्ण ज्वरो मे लाक्षादि तैल, महालालादि तैल, चदनादि तैल, मगुर्वादि तेल अथवा पट्कटवर तेल या चन्दनबला लाक्षादि तेल की मालिया पूरे शरीर भर में हल्के हाथो में करनी चाहिये । इन तैलो के लिये गोपण के पर्याप्त मवमर दो-तीन घण्टे का देना चाहिये। पश्चात् रोगी बहुत क्षीण न हो तो गर्म पानी में तौलिये को भिगो कर निचोट कर पोछ देना चाहिये । इन तैलो के प्रयोग के सम्बन्ध में थोडा विचार अपेक्षित रहता है। जैसे यदि रोगी को जाडा बहुत लगता हो तो उमे उष्ण द्रव्यो से सिद्ध तेल का मभ्यग जैसे मङ्गारक तेल (गा नं.) या मगुर्वादि तैल (चर ) का अभ्यग कराना चाहिये। यदि दाहादि लक्षण मिले तो चंदनादि तैल ( चर ) या लाक्षादि या चंदनबला लाक्षादि तैल (भै. र ) का अन्यग कराना चाहिये।
धूपन-नव ज्वर तथा जीर्ण ज्वर इन दोनो अवस्थामो मे वृपन का उपयोग किया जा सकता है। परन्तु जीर्ण ज्वर में यह विगेप लाभप्रद पाया गया है । इस क्रिया के द्वारा त्वचागत ज्वर स्वेद के द्वारा उतर जाता है। यान धूप, अपराजित धूप तथा माहेश्वर वप के नाम मे कई पाठ अपव्यरत्नावली म पाय जाते है । इन में से किसी एक का प्रयोग रोगी के शरीर के वपन के लिये करना चाहिये। धूपन के अनन्तर पमीना बहुत माता है, उमको मूखे वस्त्र स पाठ देना चाहिये फिर उसको ठडा हवा के झोके आदि में रक्षा करनी चाहिये ।
१ अभ्यङ्गाश्च प्रदेहाश्च परिपकावगाहने । विभज्य गीतोष्णकृत कुर्याजीर्णज्वरे मिपक् ॥ तैराग प्रगम यात्ति बहिर्गिगतो ज्वर । लभन्ते मुखमङ्गानि वल वर्णश्च वर्तते ॥ (च ) २ लाजामधुकमजिष्टामूर्वाचन्दनसारिवा ।
तैलं पटकटवरं नाम ह्यभ्यङ्गाज्ज्वरनागनम् ।। लानाहरिद्रामजिष्टाकल्केस्तैलं विपाचितम् । पड्गुणेनारनालेन दाह्मीतज्वरापहम् ।।