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चतुर्थं खण्ड : दसवॉ अध्याय इसी लिये इरा कृमि को कद्द दाना भी कहते है। इनकी उपस्थिति से कभी-कभी पेट मे दर्द, वमन, मन्दाग्नि और कई वार भस्मक रोग तथा पाण्डु रोग भी पैदा होता है। ये कृमिया अधिकतर आनूप मास ( गोमास, मूकरमास ) खाने वालो में पाई जाती है।
ये कृमिया सहितोक्त श्लेप्मजवर्ग मे आती है। सभवत महागुद नाम से इनका ही वर्णन प्राप्त होता है।
सूत्रकृमि या तन्तुकृमि ( Thread worms)—ये बीजाकर या सूत्र की भांति श्वेत वर्ण के बहुत सख्या मे पाये जाने वाली प्रायः आधा जी की लम्बाई की कृमियां है । प्राय वच्चो मे मिलती और गुदामार्ग से रात्रि मे बाहर निकलती है। इनसे गुदकण्टू ( गुदा मे खुजली होना) एक प्रवान लक्षण है । इनमे कई के वजह से प्रवाहिका, गुद-भंग, शय्या-मूत्र और प्रतिश्याय प्रभृति लक्षण भी पैदा हो जाते है। __इन कृमियो का पुरीपज कृमियो के वर्ग मे वर्णन पाया जाता है । इन कृमियो के अतिरिक्त भी कुछ कृमि जैसे-प्रतोद कृमि (Whipworm ) तथा ग्लोपद कृमि (Filarna Nocterna) प्रभृति पाई जाती हैं। कृमि-चिकित्सा मे कथित योग इनमे भी लाभप्रद होते है।
क्रिया-क्रम-१ सभी कृमियो मे अपकर्षण प्रथम उपचार है । अपकर्पण शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, खीच कर निकालना । यह अपकर्षण की क्रिया हाथ की अगुलियो या नख को सहायता से अथवा चिमटी जैसे किसी यत्र की सहायता से सम्पन्न हो सकती है। यह क्रिया वाह्य कृमियो के सम्बन्ध में तथा दिखलाई पडने वाली कृमियो के सम्बन्ध मे समुचित प्रतीत होती है, परन्तु आभ्यतर कृमियो तथा अदृष्ट कृमियो के विपय मे कैसे सभव हो सकता है ? आचार्य ने बतलाया कि इन अदृष्ट या आभ्यतर कृमियो का अपकर्पण भेपज या औपधियो के द्वारा सभव है । भेपज द्वारा अपकर्षण के चार साधन है-१ वमन २ विरेचन ३. शिरोविरेचन तथा ४ आस्थापन वस्ति ।
२ दूसरा उपक्रम-प्रकृति विघात का होता है--जिसमे कारणो को नष्ट करने के लिये या शरीर का सतुलन ठीक रखने के लिये कृमि रोग मे कटु, तिक्त एव कपाय रस पदार्थों का सेवन तथा क्षारीय एव उष्ण द्रव्यो का उपयोग करना आवश्यक है। इससे मधुर-अम्ल-लवण के अति सेवन से उत्पन्न कृमियो का क्रमश नाश होता चलता है। यह उपक्रम सशमन कहलाता है।