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चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय
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समावेश इस आत्र कृमि के वर्ग में ही हो जाता है। आभ्यतर कृमियो का ही एक दूसरा वर्ग रक्तज कृमियो का हो सकता है । जिनसे श्लीपद और कुष्ठ प्रभति रोग होते हैं। आभ्यतर कृमियो मे आमाशयात्रगत कृमियो का Intestinal Parasites नाम से आधुनिक ग्रथो मे वर्णन पाया जाता है। रक्तन कृमियो का वर्णन श्लीपद रोग या कुष्ठ रोग के अधिकार मे आगे किया जायगा । इस अध्याय में अपना प्रतिपाद्य विपय केवल आत्रगत कृमियो तक ही सीमित रखना अपेक्षित है।
आनगत कृमि ( Intestinal Worms) की श्रेणी में प्रमुखतया पाई जाने वाली आधुनिक युग के गोधो पर आधारित तथा व्यवहार क्षेत्र मे अविक पाई जाने वाली चार प्रकार की कृमियां प्रमुखतया पाई जाती है । १ अकुशमुख कृमि ( Hook worms ), गण्डूपद कृमि (Round worms), सूत्र कृमि ( Thread worms) तथा स्फीतकृमि ( Tape worms), ये सभी प्राचीनोक्त श्लेष्मज और पुरीपज श्रेणी के भीतर ही समाविष्ट हो जाती है ।
प्राचीन निदान को समझने के लिये आधुनिक शोधो के आधार पर इनके उपसर्ग-विधि पर एक सक्षिप्त कथन प्रासगिक प्रतीत होता है । एतदर्थ इनके पृथक पृथक् समुत्थान स्थान, संस्थान, वर्ण, नाम, प्रभावादि का उल्लेख किया जा रहा है।
- अंकुशमुख कृमि-श्लेष्मज कृमियो के वर्ग मे अन्नाद नाम से सभवत. प्राचीन सहिताओ मे इसो कृमि का उल्लेख आता है। अकुशमुख कृमि से उपसृष्ट व्यक्ति के मल-पुरीप ( पाखाने) मे इनके अण्डो की उपस्थिति पाई जाती है। ये अण्डे गीली भूमि मे पडे रह कर तीन दिनो मे इल्ली (Larval ) का रूप धारण कर लेते है। इसके पश्चात् इनका और भी रूपान्तर होता है। इस अवस्था मे ये तीन-चार मास तक जीवित रह सकती है। यदि कोई व्यक्ति नगे पैर उस स्थान पर जाता है तो इल्लियां उसकी त्वचा के द्वारा प्रविष्ट होकर लसीका-वाहिनियो और सिराओ से होते हुए दक्षिण निलय मे पहुँच जाता है। वहाँ से रक्त द्वारा फुफ्फुस को फिर फुफ्फुस से कंठनाली तक जाती है वहाँ से पुन अन्न-प्रणाली मे फिर वहाँ से चलकर अन्ततो गत्वा अपने स्थायी आवास-स्थान पक्वामाशयान्त्र ( Duodenum and jejunum) मे आकर स्थित हो जाती है। दो सप्ताहो तक इनके आकार में वृद्धि होती है एव लगभग चार सप्ताह मे ये पूर्ण पुष्ट हो जाती है। यहाँ रहते हुए स्त्री कृमि गर्भवती होकर अण्डे देती है जो पुरोप द्वारा निकल कर पूर्वोक्त अवस्थावो को प्राप्त करके उपसर्ग मे सहायता करती है।