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भिपक्रम-सिद्धि
मत्र में पाई जाती है। केवल देखने मात्र से ही रोग का विनिश्चय सभव रहता है। कामला के प्रधान दो प्रकार मिलते है । १ कोष्ठाथिय, २. गाखाधित ।
कामला ही बढा हुमा कुम्भ कामला है। कामला हो कालान्तर (कुछ समय के पश्चात् ) में ममय अधिक बीत जाने पर कुम्मकामला का रूप धारण कर कृच्छयाध्य हो जाता है। इसम गोफ का उपद्रव भी पाया जाता है।
हलीमक कुम्भ कामला से परे की अवस्था है जिनमे पागड रोगी का वर्ण हरा या नील पीत हो जाता है। दीर्वत्य, रक्तक्षय, मन्दाग्नि, मृदु ज्वर और उत्माह को कमी रोगी में पाई नाती है।"
पाण्डु रोग में क्रियाक्रम-वृत (पचगव्य-महातिक्त अथवा कल्याण वृत) पिलाकर तीटण वमन तथा रेचन कर्म के द्वारा ऊबवि. गोवन करना चाहिये । तदनन्तर निम्नविधि से प्रगमन की क्रिया करे। वानिक पाण्डु रोग में विशेषत. स्निग्ध, पत्तिक मे तिक्त रसात्मक गीत वीर्य द्रव्य तथा ग्लैष्मिक में, कटु तिक्त रसात्मक उष्ण द्रव्यो का प्रयोग करे । त्रिदोपज पाण्डु में विदोप नामक अथवा तीनो दोपो की मिश्रित चिकित्सा करनी चाहिये ।
मृज्जपाण्डु में विशिष्ट क्रियाक्रम-मृज्जपाण्डु में रोगी के बलावल को देखते हुए युक्तिपूर्वक तादा विरेचन दे देकर खाई हुई मिट्टी को कोष्ट से बाहर निकालना चाहिये । कोष्ट के शुद्ध हो जाने पर वत्य मिद्ध वृतो का मेवन कराना चाहिये। ____ व्योपादि घृत-व्योष (त्रिकटु ), वित्व, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, श्वेत एवं रक्त पुनर्नवा, मोथा, मण्डूर, पाठा, विढग, देवदारु, वृश्चिकाली, भार्गी और दूध
१ पाण्डत्वदनेत्रविण्मूत्रनमै स्यात्पाण्डुरोगवान् । दोपैभिन्नभिन्नश्च पचमो भक्षणान्मृद. ॥ पीतत्वङ्मूत्रविण्नेत्रा बहुपित्तात्तु कामला कोप्टगाखाश्रया मता ।। कालान्तरवरीभूता कृच्छा स्यात् कुम्भकामला । उपेक्षया च शोफाढ्या सा कृच्छा कुम्भकामला ॥ २ पंचगव्य महातिक्तं कल्याणकमथापि वा ।
स्नेहनाथ वृतं दद्यात् कामला-पाण्डुरोगिणे ।। ३ तत्र पागवामयी स्निग्धतीदर्णानुलोमिक. । मगोव्य । ततः प्रगमनी कार्या क्रिया वैयेन जानता। वातिके स्नेहभूयिष्ठ पत्तिके तिक्तगीतलम ॥ ग्लैष्मिके कतिक्तोष्ण विमिश्र मान्निपातिकम् । निष्पातयेच्छरीरात्तु मृत्तिका भनिता भिषक् युक्तिन' गोधनस्तीक्ष्ण प्रसमीक्ष्य वलावलम् । शुद्ध कायस्य सोपि वलाघानानि योजयेत् ॥ (च चि १६)
मानक कतिक्नोष्ण ना! वातिके नाम