________________
चतुर्थ खण्ड : दसवॉ अध्याय हलीमक-प्रतिपेध-कामला का ही एक बढा हुआ रूप हलोमक होता है। इसमे बात और पित्त दोपो की अधिकता पाई जाती है। रक्त मे पित्त के अत्यधिक होने से रोगी मे असाध्यता के लक्षण व्यक्त होने लगते है। रोगी का वर्ण हरित, श्याव या पीतवर्ण का हो जाता है । अग्नि मद हो जाती है, मृदु स्वरूप का ज्वर बना रहता है, अरुचि, आलस्य, रोगी का बल और उत्साह क्षीण हो जाता है, स्त्रियो मे अहर्ष, अगमर्द, श्वास, तृष्णा, भ्रम और मूर्छा प्रभृति उपद्रव होने लगते है। इसी रोग को आचार्य सुश्रुत ने लाघवक या लाघरक अथवा अलमनाम से वर्णन किया है। सभवत अर्वाचीन विद्वानो के द्वारा वर्णित पित्तमयता (Cholaemia) की यह अवस्था हो । इस रोग को चरक ने "महाव्याधिहलीमक " बतलाया है। __इसमे वात-पित्त-शामक पाण्डु तथा कामला रोग की चिकित्सा करनी चाहिये। एतदर्थ गुडूची स्वरम और क्षीर से सिद्ध माहिप ( भैसका ) घृत का सेवन कराना चाहिये । निगोय या आमलका का स्वरम पिलाकर उपर्युक्त घृत से स्निग्ध रोगी को मृदु विरेचन कराना चाहिये । पुन. विरेचन के अनन्तर वात-पित्तशामक मधुरप्राय योगो का सेवन कराना उतम रहता है। जैसे अभयालेह, द्राक्षालेह, मा:कारिष्ट (द्राक्षारिष्ट), जीवनीय गण से सिद्ध घृत आदि का सेवन कराना चाहिये। अग्नि की वृद्धि के लिये अन्य अरिष्टो का भी प्रयोग उत्तम रहता है। कास-- रोगाधिकार मे कथित अभयावलेह जिसको अगस्त्य हरीतकी कहते है एक उत्तम योग है, पिप्पली तथा मधुष्टि का उपयोग भी इस अवस्था मे उत्तम रहता है। अस्तु, इनका प्रयोग दोष और रोगी के वलानल के अनुसार दूध के अनुपान से करना चाहिये । रोगी मे क्षीरवस्ति, यापना वस्ति ( सिद्धिस्थानोक्त ) अथवा अनुवासन वस्ति का प्रयोग लाभप्रद रहता है।'
इस अवस्था मे सहस्रपुटी लौह का अथवा अधिक से अधिक पुट दी हुई लौह भस्म का प्रयोग १ रत्ती की मात्रा मे दिन मे तीन वार मधु से करना चाहिये । दूध और शर्करा का अनुपान पर्याप्त मात्रा मे करना चाहिये ।
१ गुडूचीस्वरसक्षीरसाधित माहिप घृतम् । स पिबेत् त्रिवृता स्निग्धो रसेनामलकस्य तु । विरिक्तो मधुरप्राय भजेत् पित्तानिलापहम् । द्राक्षालेह च पूर्वोक्तं सर्पोपि मधुराणि च । यापनान् क्षीरवस्तीश्च शीलयेत्सानुवासनान् । मा-कारिष्टयोगाश्च पिवेद्य क्त्याग्निवृद्धये । कासिक चाभयालेहं पिप्पली मधुक वलाम् । पयसा च प्रयु जोत यथादोप यथावलम् ।