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का उल्लेखहम काम प्रधान कारण मन्दार से सम्बद्ध होतत्पत्ति में
चतुर्थ खण्ड : आठवॉ अध्याय ( Proctitis), आध्मान, दारुण शूल, रक्तातिस्राव ( Haemorhgea) तथा अर्गका पुनरुद्भव ( Ralapses ) तथा कई वार इन कर्मों मे असावधानी से मृत्यु तक हो जाती है । अस्तु, जो कर्म सुविधापूर्वक किया जा सके उसी कर्मों का उल्लेखहम करते है जिनसे अर्श जड के साथ नष्ट हो जाते है।
मर्श रोगो में प्रधान कारण मन्दाग्नि ( अग्निमदता ) रहती है । अर्श, अतिमार तथा ग्रहणो तोनो रोग एक दूसरे से सम्बद्ध होते हैं और बहुधा एक दूसरे के उत्पादक रूप में पाये जाते है। उन सवो की उत्पत्ति में अग्निमदता ही प्रधान हेतु के रूप में पाई जाती है। अग्नि के मंद होने पर ये उत्पन्न होते है
और अग्नि के दीप्त होने पर ये स्वयमेव नष्ट हो जाते है। अस्तु इन रोगो के उपचार में अग्नि को दोप्त करने के लिये जो भी उपचार प्रशसित है उनका उपयोग करना चाहिये ।२
अस्तु अर्ग को चिकित्सा मे १ वातानुलोमक ( वायु के अनुलोमन के लिये ), २ अग्नि के बल को बढाने के लिये ( अग्निवर्धक ) ३ विवधहर (कोष्ठ की बद्धता को दूर करने के लिये) जो अन्न, पेय तथा भेषज द्रव्य है उनका प्रयोग नित्य अर्श मे करना चाहिये । यदि अर्ग रोग का अतिसार (पतले दस्त) मा रहे हो तो वातातिसारवत् चिकित्सा करे और अगर पुरीप बद्ध या गांठदार हो तो उदावत रोग के सदृश उपचार करना चाहिये।४।।
अर्ग रोगो के छ प्रकार शास्त्र मे ( वात-पित्त-कफ-रक्त-त्रिदोप और सहज भेद मे ) बतलाये गये है, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से दो ही भेद कर लेना पर्याप्त होता है कि अर्श शुष्क है या स्रावी? शुष्क अर्श अधिकतर गुदा की वाह्य वलियो
१ तबाहरेके शस्त्रेण कर्त्तन हितमर्शसाम् । दाह क्षारेण चाप्येके दाहमेके तथाग्निना ॥ अस्त्येतद् भूरितन्त्रेण धीमता दृष्टकर्मणा । क्रियते विविध कर्म भ्रशस्तन सदारुणम् ॥ पुस्त्वोपघात श्वयथुगुदे वेगविनिग्रह । आध्मान दारुण शल व्यथा रक्तातिवर्तनम् ॥ पुनर्विरोहो रुढाना क्लेदो भ्र शो गुदस्य च । मरण वा भवेच्छीत्र शस्तक्षाराग्निविभ्रमात् ।। यत्तु कर्म सुखोपायमल्पभ्र शमदारुणम् । तदर्शसा प्रवक्ष्यामि समूलाना निवृत्तये ॥ (च चि १४) २ अर्शोऽतिसारा ग्रहणीविकारा प्रायेण चान्योऽन्यनिदानभूता ।
सन्नेऽनले सन्ति न सन्ति दीप्ते रक्षेदतस्तेपु विशेपतोऽग्निम् ।। ३ यद् वायोरानुलोम्याय यदग्निवलवृद्धये ।
अन्नपानौषधद्रव्य तत्सेव्य नित्यमशसै ॥ ४ वातातिसारवद् भिन्नवर्चास्यास्युपाचरेत् ।
उदावतविधानेन गाढविटकानि चासकृत् ॥