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चतुर्थ खण्ड : आठवॉ अध्याय पंचकोल, विडङ्ग, हरीतकी चूर्ण युक्त तक का एक मास तक निरन्न रहकर सेवन । १० शृङ्गवेर ( अदरक), पुनर्नवा और चित्रक से सिद्ध दूध का सेवन । ११ चित्रक मूल और क्षारोदक से यव के ओदन ( भात ) का सेवन ।
१२ पुटपक्व शूरण प्रयोग-सूरण के ऊपर मिट्टी का २ अगुल मोटा लेप कर अग्नि में पकाकर भर्ता बनाकर नमक और तेल के साथ सेवन ।
१३. वैगन ( भण्टा) का भर्ती बनाकर सेवन ।
भेपज-योग-चिरबिल्वादिकषाय-चिरविल्व ( करजकी गुद्दी ), पुनर्नवा, चित्रक मूल, अभया, छोटो पोपली, सोठ तथा सैधव के सम भाग में सिद्ध कपाय का सेवन ।'
लवणोत्तमादिचूर्ण-सैन्धवलवण, चित्रकमूल, इन्द्र जौ, करा बीज को मज्जा, बकायन के बीज को गुद्दी समभाग मे चूर्ण । मात्रा ३ माशे-६ माशे । अनुपान तक ( मठे )। एक सप्ताह के प्रयोग से पर्याप्त लाभप्रद ।
- समशकरचूर्ण-छोटी इलायची १ तोला, दालचीनी २ तो तेजपत्र ३ तोला, नागकेसर ४ तोला, काली मिर्च ५ तोला, पीपरि ६ तोला, सोठ ७ तोला सब के बरावर मिश्री मिलाकर बनाया चूर्ण । मात्रा ३ माशे से ६ माशे की अनुपान जल । श्वास कास, अर्श तथा अग्निमाद्य मे लाभप्रद । 3
भल्लातक अथवा कुटजत्वक-शुष्काशं मे भल्लातक और रक्तार्श मे कुटजत्वक् का योग सर्वोत्तम है । सभी प्रकार के अर्श मे सभी ऋतुवो मे शक्तिवर्द्धक, अग्निवल कारक और मलशोधक आहार और पथ्य देना चाहिये।
उपर्युक्त प्रयोगो द्वारा अग्नि दीप्त होती है और कारण के नाश से कार्य का नाश-इस सिद्धान्त के अनुसार अर्शाङ्कर नष्ट होते हैं । अर्शाङ्करो पर कई प्रकार के अभ्यग, लेप आदि का प्रयोग भी लाभप्रद होता है। ऐसे कुछ योगो का नीचे उल्लेख किया जा रहा है। १ चिरविल्वपुनर्नववह्नयभयाकणनागरसैन्धवसाधितकम् ।
गुदकोलभगदरगुल्महर जठराग्निविवर्धनमाशु नृणाम् ॥ २ लवणोत्तमवह्निकलिङ्कयवान् चिरविल्वमहापिचुमर्दयुतान् ।
पिव सप्तदिन मथितालुलितान् यदि मदितुमिच्छसि पायुगदान् । ३ शण्ठीकणामरिचनागदलत्वगेल चूर्णीकृत क्रमविवद्धितमूर्वमन्त्यात् । खादेदिद समसित गुदजाग्निमाद्यकासारुचिश्वसनकण्ठहृदामयेपु ।
४ शुष्केपु भल्लातकमग्रयमुक्त भैपज्यमार्टेपु च वत्सकत्वक् । सर्वेषु सर्वत्र्तुषु कालशेयमर्श सु वल्य च मलापहञ्च ॥