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चतुर्थ खण्ड · पंचम अध्याय
२४५ तोनवार जल, दूध या ज्वरनाशक किमी पवाथ से इसी प्रकार गडूच्यादि घृत का प्रयोग परम लाभप्रद होता है ।'
अनुवासन-ज्वर की पुराण या जीर्णावस्था मे जव कक एव पित्त क्षीण हो गये हो, अग्नि प्रवल हो, रोगी का पाखाना रूक्ष और बद्ध ( गांठदार ) हो गया हो तो अनुवामन देना चाहिये ।' सिद्धि स्थान मे चरक मे बहुत से अनुवासन बस्नियो पा उल्लेख है उनमें से किसी एक का जो ज्वरघ्न हो उपयोग करना चाहिये । अष्टाङ्ग हृदयकार ने एक ज्वरघ्न अनुवासन वस्ति का सामान्य उपदेश दिया है। वह इस प्रकार का है-जोवन्ती, मनफल, मेदा, पिप्पलो, मधुयष्टि, यच, द्धि, राम्ना, बला, विन्य, शतपुष्पा, गतावरो इन सब द्रव्यो को सम मात्रा में लेकर पोतकर-दूध, जल, तेल और घो मिलाकर सिद्ध करे। इसमे दूध का चार भाग, जल रा चार भाग, घो और तैल का एक-एक भाग होना चाहिये जोर च्या कल्क बाघा भाग होना चाहिये। इस प्रकार सिद्ध किये स्नेह का गदा मार्ग से वस्ति द्वारा प्रवेश कराना चाहिये ।
ऊर्ध्व विरेचन या शिरोरेचन-जीर्ण ज्वर मे शोधन के लिये विरेचन नम्य देना चाहिये । इससे सिर का दर्द, गुरुता (भारीपन) एव कफ नष्ट होता है, अन्न मे रुचि पैदा होती है, इन्द्रिया चैतन्य युक्त और प्रसन्न होती है। शून्य मिर (पाली निर ) मे स्निग्ध नस्य देना चाहिये ।
अभ्यग तथा परिपेक-शीत और उष्ण उपचार की विवेचना करते हए औषधि से निद्ध तैलो का मभ्यग, प्रदेह ( लेप), परिषेक (Sponging) तया अवगाहन (जल, दूध या सिद्ध तेल से भरे पान मे डुबकी लगाकर स्नान )
१ ज्वरा कपायर्वमनलवनलघुभोजन । रूक्षस्य ये न शाम्यन्ति सपिस्तेषा भिपग्जितम् ॥ रूक्ष तेजोज्वरकर तेजमा रूक्षितस्य च । य स्यादनुवलो धातु स्नेहमान न चानिल ॥ कपाया सर्व एवैते सर्पिषा सहयोजिता । प्रयोज्या ज्वरशान्त्यर्थमग्निमधुक्षणा शिवा ॥
गुडूच्या क्वाथकल्काभ्या त्रिफलाया वृपस्य च । मृद्वीकाया वलायाश्च मिद्धा स्नेहा ज्वरच्छिद ॥ (भै ) स्वरे पराणे सक्षीणे कफपित्ते दृढाग्नये । रूक्षवद्धपुरीपाय प्रदद्यादनुवासनम् ॥(न) ३ गौरवे शिरस शूले विवद्धेष्विन्द्रियेषु च ।
जीर्णज्वरे रुचिकर दद्यान्मूर्धविरेचनम् । ( चर ) । गिरोरुग्गौरवश्लेष्महरमिन्द्रियवोधनम् । जीर्णज्वरे रुचिकर दद्यान्नस्य विरेचनम् । स्नैहिक शून्यशिरस ॥ (वा )