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भिपक्कर्म-सिद्धि
हो तो लघन वडा ही उत्तम होता है । उसी ने उसके वढे हुए दोप का शमन और आम का पाचन भी हो जाता है ।
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२ जल प्रयोग - अतिसार मे कच्चा ठंडा जल देना ठीक नही रहता, अस्तु उमको औपवित जल देना चाहिये । यत एव मुगंधवाला तथा शुठी या मुस्तक तथा पर्पट या नागरमोथा तथा सुगध वाला के योग से संस्कृत अर्थात् पानीय विधि से बनाया जल पीने को देना चाहिये । इसके अभाव में सॉफ का अर्क, पुदीने का अर्क या जेवायन का अर्क वोच-बीच मे तृपा की शान्ति के लिये देना चाहिये । "
३ शालपर्ण्यादि पडङ्गपानीय – गालिपर्णी, पृश्निपर्णी, वृहती, कंटकारी, वला, गोक्षुर, विल्व, पाठा और मोठ इन द्रव्यो को समपरिमाण में मिला कर पडङ्गपानीय विधि से कपाय वना कर रख ले। तृपा मे रोगी को पीने को दे । फिर इमी कपाय मे मण्ड, पेया और यत्रागू आदि पथ्य सिद्ध करके रोगी को पथ्य के रूप मे अन्न काल मे देना चाहिये ।
४ लघन एक ढो वक्त तक कराके रागी को पीने के लिये उपर्युक्त कपायो मे मित्र मण्ड, पेया, विलेपी, यवागू प्रभृति पथ्य समय से क्षुवा लगने पर भोजन के काल मे देना चाहिये । अतिसार के रोगियो ममूर की दाल (यूप) सर्वोत्तम पथ्य माना गया है । इमी प्रकार धान्य लाज के सत्तू का प्रयोग भी उपर्युक्त कपाय मे घोल कर मिश्री मिलाकर या सेंधा नमक मिला कर अतिसार मे हितकर माना गया है | 3
१ आमे विलघन शस्तमादौ पाचनमेव च । कार्यं चानगनस्यान्ते प्रद्रवं लघु भोजनम् ॥ २ होवेरशृङ्गवेराभ्या मुस्तपर्पटकेन वा । मुस्तोदोच्यवृत तोय देयं वापि पिपासवे ॥ ३ युक्तेऽन्नकाले क्षुत्क्षाम लघून्यन्नानि भोजयेत् । अपaसिद्धा पेया लाजाना शक्तवोऽतिसारहिता | वस्त्रप्रत्र तमण्ट पेया च मसूरयूपश्च । शालपर्णी पृश्निपर्णी वृहती कण्टकारिका । चलाग्वद्रष्ट्रावित्वानि पाठानागारधान्यकम् । एतदाहारसंयोगे हितं सर्वातिसारिणाम् ।
धान्यक नागर मुस्त वालकं विल्वमेव च ।। आमशूलविबन्धघ्नं पाचन वह्निदीपनम् । इद धान्यचतुष्क स्यात् पैत्ते शुण्ठी विना पुन: । ( भँ. र. )