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चतुर्थ खण्ड : तृतीय अध्याय
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दे भाग सब को एकन घोटकर गोलियां बना ले। कपूर और होग को एक मे घोटने से गोली बनने लायक हो जाता है । यदि आवश्यकता हो तो थोडी मधु मिला ले |
अनुपान - पानी से यो अदरक के रस और मधु मे घोल कर दे ।
इसके उपयोग से नाडी एव श्वास की गति सुधरती है, छाती का दर्द ( उर शूल एव वक्षस्तोद ) कम होता है, कफ पतला होकर निकलने लगता है । रोगी के हाथ-पैर का फेकना, कपडा फेकना, उठना-बैठना, वकना कम होता है । बालश्वसनक (त्रांकोन्यूमोनिया मे ) - शृंग सिन्दूर - रस सिन्दूर या स्वर्ण सिन्दूर रत्तो तथा गभस्म १ रत्ती, शुद्ध टकण १ रत्ती की मात्रा मे मिलाकर, ऐमी एक मात्रा बनावे । दिन मे चार, चार घटे के अन्त पर गुडची के स्वरस और मधु के अनुपान मे । बच्चो के श्वसनक ज्वर मे इससे उत्तम लाभ होता है ।
छाती पर लेप - उपर्युक्त अतः उपचारो के साथ ही श्वसनक ज्वरो से युक्त रोगियो मे सीने पर कई प्रकार के लेप भी वडे उत्तम होते हैं । जैसे - वारह सिंगे को सीग को प्याज के रस मे घिसकर लेप करना, पुराने घृत मे संधानमक और कपूर मिलाकर सीने पर आगे-पीछे और पार्श्व मे लेप करना । केवल पंच-गुण तैल मे थोडा ऊपर से कपूर मिलाकर छाती पर मालिश करना । अजाविडादि लेप - चावल को भूनकर, वकरी की मोगी, कूठ को गोमूत्र में पीसकर आग पर गर्म करके सीने पर लेप करना ।
तृतीय अध्याय आगन्तुक ज्वरोपचार
क्रियाक्रम - लंघन का निषेध - आगन्तुक कारणो से उत्पन्न ज्वरो मे रोगी को लघन नही कराना चाहिये । आगन्तुक ज्वर का अर्थ होता हैचिन्ता, शोक, क्रोध, प्रहार, भय, भूत-प्रेत, श्रम अथवा औपधि के (वनस्पतियो के पराग की ) गंध से होने वाले ज्वर । इन ज्वरो मे उपवास न कराके मासरस के साथ चावल का भात खाने को देना चाहिये । १
१ आगन्तुजे ज्वरे नैव नर कुर्वीत लड्घनम् । ( भै र )