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प्रथम अध्याय
शाब्दिक व्युत्पत्ति - 'कित रोगापनयने' व्याकरण के ग्रंथो मे 'किंत्' धातु का प्रयोग रोग के दूर करने के अर्थ मे होता है । इसी 'कित्' धातु से चिकित्सा शब्द की निष्पत्ति होती है । कित् + कित् + सन् + अ केतितुमिच्छा चिकित्सा | इस शब्द का समष्टि मे अर्थ होता है रोग का दूरीकरण । वार्तिककार ने लिखा है कि 'कित्' धातु का प्रयोग व्याधि के प्रतिकार, निग्रह, अपनयन तथा नाशन मे होता है । फलत इस धातु से बने शब्द चिकित्मा का भी इन्ही अर्थों मे व्यवहार होता है । " या क्रिया व्याधिहरणी सा चिकित्सा निगद्यते । " ( वैद्यकशब्द सिन्धु )
पर्याय-चिकित्मा के पर्याय रूप मे कई शब्दो का व्यवहार प्राचीन ग्रंथो मे पाया जाता है । उदाहरणाथ क्रिया, कर्म, प्रतिकर्म, वैद्यकर्म, भिषक्कर्म, भिपग्जित, प्रतिपेध, प्रतीकार, प्रशमन, शमन, रोगापनयन, व्याधिहर, प्रायश्चित्त, चिकित्सित, पथ्य, साधन, औपव, प्रकृतिस्थापन, रोगोन्मूलन, निग्रह, उपक्रम, उपचार तथा
उल्लाघन ।
चिकित्सितं व्याधिहर पथ्यं साधनमौपधम् । प्रायश्चित्तं प्रशमनम् प्रकृतिस्थापनं हितम् ॥ चिकित्सितं हितं पथ्यं प्रायश्चित्त भिपग्जितम् | भेपजं शमनं शस्तं पर्यायैरुक्तमौषधम ॥ तद्विद्यव्याख्या - १. वैद्य, ओपध, परिचारक और रोगी आवश्यक अगो के प्रशस्त रहने पर, धातुवो के विकृत हो जाने पर, लिये जो प्रवृत्ति होती है उस को चिकित्सा कहते है
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चतुर्णा भिपगादीनां शस्तानां धातुवैकृते । प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्थी चिकित्सेत्यभिधीयते ॥
( चर )
प्रभृति चारो
धातुसाम्य के
२ जिस क्रिया के द्वारा शरीर के विपम हुए दोष एवं धातु समता को प्राप्त करते है उसे चिकित्सा कहते है और वहो वेद्य का कर्म कहलाता है । 'याभिः क्रियाभिर्जायन्ते शरीरे धातवः समाः । सा चिकित्सा विकाराणा कर्म तद् भिपजां स्मृतम् ॥ क्योकि दोपो या धातुवो का वैपम्य ही रोग कहलाता है—और उसका समान रहना ही आरोग्य है । रोग की अवस्था मे विषमता को प्राप्त हुए दोप
११ भि० सि०