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चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय
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मे छान कर पिलाना चाहिये । कपाय अधिकतर आम दोप के पाचक या सशामक होते है । इसी अर्थ मे क्वाथ का पर्याय वगला भाषा मे पाचन हो जाता है ।
ज्वर एकदोपज, द्विदोपज ( ससर्गज ) अथवा त्रिदोषज ( सान्निपातिक) हो सकते है । वात, पित्त अथवा कफ शामक तो बहुत सी ओषधियाँ है उनका उपयोग करते हुए एकदोपज व्याधियों का उपचार हो सकता है, परन्तु जब दो दोषो का समर्ग या तोनो दोपो के सन्निपात से रोग उत्पन्न हो जाय तो चिकित्सा में कठिनाई पैदा होती है । इसका विधान यह है कि ससृष्ट दोपो मे दो दो वर्ग की औपनियो का सयोजन करके और सन्निपात मे सम, तर या तम दोपो का विचार करते हुए यथोक्त दोप- शामक औषधियो से उपचार करना चाहिये । क्षीण दोपो के वर्धन करने वाले योग तथा वढे हुए दोपो के ह्रास करने वाले दोनो का प्रयोग करते हुए यथायोग्य औषधियो का योग करना चाहिये ।
कुछ कपाय रूप मे प्रयोग मे आने वाले योग तथा औषधियो का सग्रह नीचे दिया जा रहा है । "
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सामान्य योग – १ धान्य- पटोल-धान्यक एव पटोल का काढा | २. किराततिक्तादि कपाय - चिरायता, नागरमोथा, गिलोय, सोठ, पाढ, खस तथा सुगंध वाला का कपाय । ३ पथ्यादि कपाय- हरीतकी को अमलताश, आमला और निशोथ का काढा |
विशेष योग - वातिक ज्वर में - १ किरातादि क्वाथ - चिरायता, नागरमोथा नीम, गिलोय, छोटी-बडी कटेरी, गोखरू, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी और सोठ का काढा ।
पित्त ज्वर मे - १ पर्पटादि - पित्तपापडा, लाल चन्दन, खस और सुगंधवाला का कपाय । २ द्राक्षादिकपाय - द्राक्षा, हरीतको, नागरमोथा, कुटकी और अमलताश की मज्जा का काढा |
श्लेष्म ज्वर मे - १ निम्वादिकपाय - नीम की छाल, सोठ, गिलोय, देवदारु, कचूर, चिरायता, पुष्करमूल, पीपल, गज-पीपल तथा वडी कटकारी का काढा । २ चतुर्भद्रावलेहिका - कट्फल, पुष्करमूल, काकडा सीगी और पुष्करमूल - समान मात्रा लेकर महीन चूर्ण बनाकर मधु से चाटना |
वात-पित्तज्वर - १ पचभद्र क्वाथ -पर्पट, मुस्तक, गुडूची, शुठी और चिरायता का काढा २ मधुकादि शीतकपाय - मुलैठी, श्वेत सारिवा, कृष्ण सारिवा.
१ ससृष्टान् सन्निपतितान् बुद्ध वा तरतमै समै ।
ज्वरान् दोषक्रमापेक्षी यथोक्तैरौषधैर्जयेत् । वर्धनेनैकदोषस्य क्षपणेनोच्छ्रितस्य बा ॥ ( चचि ३)