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चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २११ आचार्य सुश्रुत का अभिमत यही है कि सात रात्रि के अनन्तर औषधि देनी चाहिये।' इस औषधि का लक्ष्य यह होता है-"लघन, उष्णजल, शृत शीत जल, यवागू आदि के उपयोग से यदि दोष का पाचन न हो सका हो और रोगी मे मुसवेरस्य, तृष्णा, अरुचि प्रभृति लक्षण विद्यमान हो तो पाचन, ज्वरघ्न एवं हृद्य कपायो के द्वारा सातवे दिनसे उपचार करे।
तरुग ज्वरमे प्रथम सप्ताह तक कषाय का निषेध -आम ज्वरमे कषाय निपिद्ध है । ऐने ज्वरोमे आम दोप बढा रहता है, अत: लघन कराया जाता है, ऐसी स्थितिमे कपाय रस का सेवन कराया जाय तो दोपोका स्तभन हो जाता है वे अधिक कुपित होते है और उनका प्राकृतावस्थामे लाना दुष्कर हो जाता है । विपम स्वरूपका ज्वर पैदा होता है । वस्तुत पचविध कषाय-कल्पनाके विचारसे (स्वरम, कल्क, शत-शीत, फाण्ट एवं कषाय ) सभी कपायोका सेवन निपिद्ध नही है अपितु जो कपाय, कपाय रस वाली ओपधियोसे बनाये गये हैं उनका ही उपयोग निपिद्ध है । कुछ आचार्योका मत है कि यहा पर निषिद्ध कपायसे उस कल्पनाका अर्थ अभिप्रेत है जो कि सोलह गुने जलमे पकाकर चौथाई अवशिष्ट रखकर (क्वाथ ) बनाये जाते है। इस का नवज्वर मे प्रथम छ दिनो तक या एक सप्ताह तक पिलाना निपिद्ध है। क्योकि इस कल्पनामे औषधि का अश अधिक आ जाता है, स्वाद भी अरुचिकर हो जाता है, ये क्वाथ अधिकतर कटुतिक्त रस वाली औपधियाके योग से बनते है, जिन्हे स्वभावत मनुष्य पोना नही चाहता, पीने से रोगो मे घबराहट और वेचैनी होती है-आम 'दोष अधिक तीव्र हो जाता है तथा ज्वर बढ जाता है।
उक्त औपवियोके बने स्वरस, शतशोत जल, शीत कषाय या फाण्टका प्रयोग तो कर ही सकते है क्योकि इनमे औपधि का अश कम होता है, जल की मात्रा
१ सप्तरात्रात्पर केचिन्मन्यन्ते देयमौषधम् । लङ्घनाम्बुयवागूभिर्यदा दोपो न पच्यते ॥ तदा त मुखवरस्यतृष्णारोचकनाशन । कषाय पाचनह द्यैवरघ्न समुपाचरेत् ।। (सु उ तत्र ३९)
२ स्तभ्यते न विपच्यन्ते कुर्वन्ति विषमज्वरम् । दोषा बद्धा कपायेण स्तम्भित्वात्तरुणे ज्वरे। न तु कल्पनमद्दिश्य कषाय प्रतिषिद्धयते। य. कषाय कषाय स्यात्स, वय॑स्तरुणे ज्वरे ॥ च चि ३। न कषाय प्रयुञ्जीत नराणा तरुणे ज्वरे । कषायण कुलीभूता दोप जेतु सुदुष्कर । न तु कल्पनमुद्दिश्य कपाय प्रतिषिद्धयते । य काय कपाय स्यात्स वज्यस्तरुणे ज्वरे ॥चतुर्भागावशिष्टस्तु य पोडशगुणाम्भसा। सपाय कपाय स्यात् स वय॑स्तरुणे ज्वरे ॥ फाण्टादोना प्रयोगस्तु न निपिद्धतीचन । ( शाङ्ग)।