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भिपक्कर्म-सिद्धि
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चाहिये । तथा तूपा और दाह से युक्त रोगी को शीतल जल भी नही पिलाना चाहिये । सदैव उष्ण जल का ही प्रयोग पीने मे करना चाहिये । त्रयोदश (१३) प्रकार के सन्निपात ज्वर में क्रिया क्रम तथा भेपज
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द्वात्रिंशदङ्ग, अष्टादशाङ्ग तथा बृहत् कट्फलादि कपायो का उल्लेख पूर्व मे हो चुका है । ये तीनो बडे लाभप्रद प्रसिद्ध कपाय है जिनका सामान्यतया त्रिदोपज ज्वरो में प्रयाग होता है ।
अब सन्निपात के तेरह भेदो के अनुसार चिकित्सा का उल्लेख किया जा रहा है। सन्निपातज ज्वर मे तीव्र विपमयता होती है उस विष का विविध मस्तिष्क के केन्द्रो पर प्रभाव होकर कही वाधिर्य, कही स्वर का लोप, कही मूकता प्रभृति प्रमुख चिह्न मिलते है जो प्रवल उपद्रव के रूप में सन्निपात ज्वरो मे पैदा हो जाते है । उस एक प्रधान उपद्रव को आधार मानकर विविध प्रकार के सन्निपातो के नाम पाये जाते है । इन नामो के अनुसार ही यहाँ पर शास्त्रसम्मत चिकित्सा का वर्णन किया जा रहा है ।
इस पाठको सान्निपातिक ज्वर के उपद्रवो की चिकित्सा कहा जाय तो अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है |
१. शीताङ्ग सन्निपात - इस अवस्था मे शरीर से अतिमात्रा मे स्वेद निकलकर शरीर का तापक्रम प्राकृत से बहुत कम हो जाता है । इस उपद्रव से सम्यक् रीति से सावधानी न रखने पर रोगी की मृत्यु हो जाती है । अस्तु कई प्रकार के उद्वर्त्तन तथा उष्ण द्रव्यों के योग से वने कपायो का उपयोग आवश्यक होता है । एतदर्थ-
भास्वनमूलादि क्वाथ --मदार की जड, त्रिकटु, जीरा, भारङ्गो, कंटकारी, पुष्करमूल इन सव द्रव्यो को समान मात्रा में लेकर क्वाथ बनाकर गोमूत्र मिलाकर पिलाना चाहिये । इस प्रयोग से अंग का ठंडा होना, कफ की वृद्धि, मूर्च्छा प्रभृति उपद्रव ठोक हो जाते है ।
शीताङ्गहर उद्वर्त्तन - खेखसा को जड का चूर्ण, कुल्थी, पिप्पली, वच, कट्फल, काला जीरा, चिरायता, चीता, सुगववाला और हरीतकी इनके चूर्ण का शरीर पर मलना लाभप्रद होता है ।
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स्वेद्गमोपचार - यदि सन्निपात की इस अवस्था में स्वेद बहुत निकलने लगे तो ऐसी स्थिति मे अजवायन, वच, सोठ, पिप्पली और मगरैल ( कृष्ण
दुसाधन. सन्निपात प्रवलोsप्याग्वेव वातपित्तोल्वणे चैव वृतं योज्यं पुरातनम् । अभ्यङ्गाच्छमयत्याशु सन्निपातं सुदारुणम् |
ममेति । ( भै द )