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भिपकर्म - सिद्धि
जंगम औषधियों के चर्म, नख, वाल, रक्त, मास, मूत्र, पुरोप आदि का उपयोग रोग की चिकित्स । मे होता है ।
औद्भिदं तु चतुर्विधम् । फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि । ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतनिर्वीरुधः स्मृताः ॥ मूलत्वक्सारनिर्यासनालस्वरसपल्लवाः ।
वायु, अवायु, धूप, छाया, ज्योत्स्ना, रात, पक्ष, माम, ऋतु, अयन तथा सुतमे दी गई है । ये स्वभाव प्रतीकार में कारण और चिकित्सा में
द्वारा औरं फलं पुष्पं भस्म तैलानि कण्टकाः ॥ पत्राणि शुना कन्द्राच प्ररोहाचौदिदो गणः । (च. सू १ ) इन द्रव्यों के अतिरिक्त कालकृत भी ओपधियां बतलाई गई है । जैमे अति अन्धकार, प्रकाश, शीत, उष्ण, वर्षा, दिन, संवत्सर इसको कालकृत ओपधि की संज्ञा से ही दोपो के सचय, प्रकोप, प्रशमन एवं उपयोगी है |
आहार एव औषधि में कोई विशेष भेद नही है । जो सामान्य आहार है, वही अवस्था भेद से ओपधि के रूप में प्रयुक्त हो सकता है । आहार या औपवि के चार वर्ग सुश्रुत में बताये गये है । १. स्थावर २. जंगम २. पार्थिव ४ कालकृत । तंत्र में इस चार प्रकार के वर्ग को शारीरिक रोगो के प्रकोप तथा शमन में कारण वताया गया है ।
शरीराणा विकाराणामेप वर्गश्चतुर्विधः ।
प्रकोपे प्रशमे चैव हेतुरुक्तश्चिकित्सकैः ॥ ( सु सू. १ ) पुरुष - कर्म पुरुष या मानव शरीर पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, आकाश तथा आत्मा के संयोग से बना है । यह चिकित्सा का अधिष्ठान है | सम्पूर्ण चिकित्सा का कर्म इसी के लिये होता है । यह प्रधान है, शेष अन्य वस्तुएं इसके उपकरण रूप में हैं ।
पशु-चिकित्सा में जहां हाथी, घोड़े, कुत्ते, गाय, भैंस प्रभृति बड़े और उपयोगी पशुओ की चिकित्सा की जाती है उस स्थान पर पशु प्रधान हो जाता है और शेष अन्य द्रव्य उसके उपकरण रूप में आते है ।
लोक-सृष्टि दो प्रकार की है स्थावर एवं जंगम । गुणो या क्रिया की दृष्टि से विचार करें तो सम्पूर्ण स्थावर तथा जंगम सृष्टि सौम्य तथा आग्नेय भेद से दो प्रकार की होती है । दोनो प्रकार की सृष्टि पंचभूतात्मक है । प्राणवारी चार प्रकार के जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज होते हैं । इनमें प्रधानता पुरुष की दो गई है प अन्य द्रव्य पुरुष के उपकरण रूप में माने जाते है ।