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द्वितीय खण्ड : तृतीय अध्याय १९१ उपक्रम-द्विदोपज मे दो दोपो के उपक्रमो को मिलाकर और सन्निपातज मे तीनो दोपो के उपक्रमो को मिलाकर चिकित्सा करनी चाहिये। .
संसर्गः सन्निपातेपु तं यथास्वं विकल्पयेत् । सर्व रोगों में एक एक औषधि (Specific or drug prescerip tion in differentdiseases)-ज्वर मे पित्तपापडा या नागरमोथा, तृषा मे मिट्टी के ढेले को गर्म करके वुझाया जल, वमन मे लाजा (धान का लावा), मूत्ररोगो में गिलाजीत, प्रमेह में आमलकी या हरिद्रा, पाण्डु रोग मे लौह या मण्डूर, वातकफके विकारो मे हरड, प्लीहा एव यकृत रोग मे पिप्पली, उर.क्षत ( Haemoptysic ) मे लाक्षा (लाख), विप मे शिरीप, मेदोरोग और वायुरोगो मे गुग्गुलु, रक्तपित्त मे अडूसा, अतिसार मे कुटज, मर्श मे भिलावा, गर विप मे सुवर्णभस्म, कृमियो मे वायविटङ्ग, स्थौल्य मे ताय शोप में सुरा, वकरी का दध एव माम, नेत्ररोग एवं वातरोगो मे त्रिफला, ग्रहणी मे तक्र, कुष्ट मे खर ( खदिरसार ), जीर सव रोगो मे शिलाजीत का सेवन हितकर होता है।
उन्माद मे पराना घी, शोक मे मद्य, अपस्मार मे ब्राह्मी, निद्रानाश मे दूध, प्रतिग्याय मे रनाला, कृशता मे मास, वायु मे लहसुन, अगो की जकडाहट या स्तब्धता मे स्वेदन, स्कव-अस एव वाहुं की वेदना (विश्वाची तथा अव बाहुक ) में मुडमजरी (जिगिणी ) का नस्य, अदित मे मक्खन, उदररोगो मे ऊँटनी का दूध या ऊँट का मूत्र, शिरोरोगो मे नस्य, नवीन उत्पन्न विद्रधि मे रक्तविनावण, मुखरोगो मे नस्य एव कवल, नेत्ररोगो मे नस्य-अजन एव तर्पण, वार्द्धक्य मे दूध और घी, मूर्छा मे शोतल जल-वायु-एवं छाया, अग्निमाद्य मे शुक्त (सिरका ) एव अदरक, थकान मे सुरा एव स्नान, दु:ख के सहने योग्य एव शरीर को दृढ बनाने के लिये व्यायाम, मूत्रकृच्छ्र मे गोक्षुर, कास मे कटकारी, पावशल मे पुष्करमूल, वय स्थापन मे आँवला, व्रण मे त्रिफला तथा गुग्गुलु, बातरोगो में वस्ति, पित्तरोगो में विरेचन, कफ मे मधु, पित्त मे घी तथा वायु मे तल परमोत्तम लाभप्रद है। इस प्रकार रोगानुसार श्रेष्ठ औषधियाँ वतलाई गई है। उनकी देश-काल तथा वल के अनुसार यथायोग्य कल्पना करके व्यवहार करना चाहिये।
मुस्तापर्पटक ज्वरे तृपि जलं मृद्धृष्टलोप्टोद्भवं लाजाश्चर्दिपु वस्तिजेषु गिरिजं मेहेषु धात्रीनिशे । पाण्डौ श्रेष्ठमयोऽभयाऽनिलकफे लोहामये पिप्पली सन्धाने कृमिजा विषे शुकतरुर्मेदोऽनिले गुग्गुलुः ।।