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तृतीय खण्ड प्रथम अध्याय
हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी
१७३
नरो
विपयेष्वसक्तः ।
दाता समः सत्यपरः क्षमावान् आप्तोपसेवी च आहार-स्वप्नन्न्रह्मचर्य-आहार, निद्रा तथा सयम युक्त आचरण का बहुत
भवत्यरोगः ॥
उपस्तभ के रूप मे वर्णन
दी गई है जिनके आधार
महत्त्व शास्त्रों में वतलाया गया है । इन तीनो का किया गया है । इनकी उपमा मकान के उपस्तभो से पर मकान सडा रहता है । इन तीनो का युक्तियुक्त प्रयोग स्वस्थ शरीर को अपेक्षित रहता है । रोगी मनुष्य को तो बहुत ही आवश्यक हो जाता है |
"त्रय उपस्तभा आहार, स्वप्नो, ब्रह्मचर्यमिति । एभिस्त्रिभिर्युक्तयुक्तैरुपस्तब्धमुपस्तम्भैः शरीरं वलवर्णोपचयोपचितमनुवर्तते यावदायुः सस्कारात् संस्कारमहितमुपसेवमानस्य य इहैवोपदेक्ष्यते ।”
( च सू ११ )
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यह रस द्रव्यो
आहार तथा औषधि : - आहार पड़सो के अधीन है मे आश्रित रहता है एव द्रव्य ही औषधि है । आहार प्राय ये गुणो की दृष्टि से मृदु, सशामक हो जाती है । औषधियाँ दो प्रकार स्थावर के पुन दो भेद हो जाते है औद्भिद
रसप्रधान होते है मध्य और तीक्ष्ण
और ओपघियां वीर्यप्रधान । पुन तथा कार्य भेद से सशोधक एव की होती है स्थावर तथा उगम तथा पार्थिव ।
।
जगम औषधियो मे चार प्रकार के जीव आते हैं । जैसे ९ जरायुज २ अण्डज ३ स्वेदज तथा ४ उद्भिद् । इनमे मनुष्य - पशु आदि जरायुज, पक्षि, सर्प अजगर प्रभृति अण्डज, कृमि, कीट आदि जीव स्वेदज तथा वीरबहूटी, मेढक आदि जीव उद्भिद् जाति के होते है ।
स्थावर द्रव्य चार प्रकार के होते है :
फूल
-१ वनस्पति, जिनमे विना आये ही फल आता है । २ वृक्ष, जिनमे फूल और फल दोनो लगते हैं । ३ वीरुधू, जो फैलने वाली लता-प्रतान या गुल्म का रूप लेते है तथा ४ ओषधि,
इस वर्ग मे दूर्वा प्रभृति
जो फल के पकने तक ही अपना अस्तित्व रखते है । द्रव्यों का भी ग्रहण कर लेना चाहिये जिनमे विना फल प्रवृत्ति पाई जाती है |
लगे पकने या सूखने की
इन स्थावर औपधियो के त्वक् पत्र, पुष्प, फल, मूल, कद, गोद, स्वरस, दूध, तेल, क्षार, कांटे प्रभृति अग चिकित्सा मे व्यवहृत होते है । स्थावरो का एक दूसरा भेद पार्थिव या खनिज द्रव्यो का है जिनमे सुवर्ण, रजत, लौह, मणि, मन शिला, मृत्तिका आदि द्रव्य चिकित्सा के व्यवहार मे आते है ।