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भिपकर्म-सिद्धि "प्रायेणामसमुत्थत्वेनामय इत्युच्यते ।” (चक्र )
"तत्र व्याधिरामयो गद आतङ्को यक्ष्मा ज्वरो विकारो रोग इत्यनर्थान्तरम् ।
(च नि १) रोगः पाप्मा ज्वरो व्याधिर्विकारो दुःखमामय ।
यक्ष्मातङ्कगदावाधा. शब्दा पर्यायवाचिनः ॥ २ ॥ (अ ह नि) चिकित्सा का सामान्य उपक्रम-जिन कारणो से रोग उत्पन्न हुआ है उन कारणो का परित्याग करना ही सामान्य चिकित्सा है । उष्णता के कारण उत्पन्न हुए रोगो मे शीतोपचार एव गैत्य के कारण उत्पन्न व्याधियो मे उप्णोपचार करना युक्तिसंगत है ।
सामान्यतः क्रियायोगो निदानपरिवर्जनम् । (सू ) हेतोरसेवा विहिता यथैव जातस्य रोगस्य भवेचिकित्सा । (च) शीतेनोष्णकृतान् रोगान् शमयन्ति भिपग्विदः। ये च शीतकृता रोगास्तेषां चोष्णं भिपग्जितम्।। (च)
क्षीण हुए दोपो का वढाना, बढे हुए दोपो को घटाना, और सम दोपो को समान बनाये रखना चिकित्सा का उपक्रम है।
"क्षीणा पद्धयितव्याः, वृद्धा ह्रासयितव्याः, समाः परिपाल्याश्च ।"
रोगहर औषधियो से रोगी की चिकित्सा करनी चाहिये । जैसे थके हुए का थकावट दूर करने वाली बऔषधियो से उपचार करे । कृश एव दुर्वल व्यक्ति का आप्यायन--संतर्पण करे, स्थल और मेदस्वी व्यक्तियो का अपतर्पण करे, उष्णाभिभूत व्यक्ति का शीत से उपचार करे, शीताभिभूत का उष्ण क्रिया से उपचार करे, न्यून घातु वाले व्यक्तियो में परण ( भरण) क्रिया से उपचार करे, वढे हए दोपो मे हासन ( कम करना ) क्रिया उपयुक्त होती है, रोग के मूल कारण के विपरीत प्रयोग से उपचार करे, ठीक ढग से स्वाभाविक या प्राकृत यवस्था में शरीर को लाने का प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रकार यथा उपयुक्त कर्म करते हुए ओपधि के योग से चिकित्सा सुन्दरतम बन जाती है।
इदं च नः प्रत्यक्षं यदनातुरेण भेपजनातुरं चिकित्स्याम , क्षाममक्षामेण, कृशञ्च दुर्वलमायाययाम , रथूल मेदस्विनमपतर्पयाम , शीतेनोप्णाभिभूतमुपचरास , शीताभिभूतमुप्णेन, न्यूनान् धातून्पूरयाम , व्यतिरिक्तान् हासयाम,, व्याधीन मूलविपर्ययेण उपचरन्तः सम्यक् प्रकृती स्थापयाम , तेपां नस्तथा कुर्वतामयं भेपजसमुदाय कान्ततमो भवति।
(चर सू १०) दोप अथवा तज्जन्य व्याधियो के गमन के लिये शारीरिक रोगो मे देवव्यपाश्रय तथा युक्तिव्ययाश्रय चिकित्सा करनी चाहिये और मानसिक रोगो में