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द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १२५ एक तो नामर्दी के अनुसार पिलाना चाहिए । पश्चात् रोगी को आचार सम्बन्धी नियमो के मादेन कराके निवाम देना चाहिए ।
Fara falar ( Vethod of Induction of Purgations )गोपन कार्यों ( Flushing of the system ) में स्नेहन, स्वेदन और वमन से मनानर ही विरेचन देना चाहिए। विना वमन कराए पुरुप मे सम्यक विरेचन होने पर भी नीने को प्रेरित हुआ कफ राहणी को टक लेता है। जिससे उदर के अधो भाग में गाता या क्वचित् प्रवाहिका उत्पन्न हो जाती है।
यदि काल विरेचन कराना हो तो पूर्वाह मे लधु भोजन करा दे, फल रस और उण उल पीने को दे, भोजन में जागल, मामरस, स्निग्ध यूप, जिससे कफ अधित न होने पाये। दूसरे दिन कफ धातु के नष्ट हो जाने पर रोगी की परीक्षा गरसे मोट के अनुगार उने विरेचन की औपधियां माना से पीने को दे।
फोट तीन प्रकार के मृदु, मध्य एव तीन होते है । अधिक पित्त वाला कोष्ठ मृत्र होता है उनमे दूध से विरेचन होता है । वात और कफ की अधिकता से कोष्ठ बहोता है, इन प्रसार के कोष्ठो मे विरेचन कठिनाई से होता है। दोनो के मध्य की अवस्थ्या मध्यम कोष्ठ की होती है। इसी को साधारण प्रकार का कोप्टरले है। मृदु कोष्ट में मृदु, मध्य मे मध्य और क्रूर मे तीष्ण विरेचन दे । विरेचन वर्म मे क्रमग मत्र, पुरीप, पित्त, औपधि, एव कफ एकैकश निर्गत होता है। विरेचन औषधियो के चयन में यह ध्यान में रखना चाहिए कि स्निग्ध शरीर मेनन विरेचन और मक्ष मे स्निग्ध विरेचन देना उचित रहता है।
पश्चात् कर्म
विरेचन औषधि के पीने के बाद भीपधि मे मन लगा कर विस्तर के समीप ही बैठे। वेग को न रोके। वायु रहित स्थान मे रहे। ठण्डे पानी का स्पर्श न करे । जबर्दस्ती प्रवाहण भी न करे ।
शोधन की मात्रा
वमन, विरेचन प्रभृति कार्यो से तीन प्रकार का शोधन होता है। हीन, मध्य, एव प्रवर। इसका विचार चार दृष्टिकोण से किया जाता है
(१) आन्तिकी- अन्तकी दृष्टि से )। (२) वैगिकी-(वेग की मख्या की दृष्टि से)। (३) मानिकी-(परिमाण की दृष्टि से)। (४) लैङ्गिकी-(लक्षणो की दृष्टि से)।