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भिपार्म-सिद्धि इन दोपो के कारण प्रयोग में कठिनाई होती और
क रो है । जैरो (१) अप्राप्त (औषध-द्रव्य गा टीक तरह में प्रवेशान रोना ।) (२) का मात्रा मे न पहुंचना ( ३ ) क्षोग ( गट ) () ग (
f r) (': } क्षणन ( बाट जाना या क्षन होना) (8) नार (m) (७) गुरा में पालामा होना तथा (८) गतिका वक्र होना।
वस्ति के दोप:-मामान न सोना, मागाना, होला, टा होना, जालीदार होना, वातदुष्ट दा होना नि नया ना ना मार दोष वस्ति में हो सकते है। इन प्रारम्तिमोगा में मारनी करना चाहिए । इन दोपो के कारण निम्नलिपि परिणाम होने
की विषमता, सट्टी दुर्गन्ध फा निकलना, बनिया होना, अनि का टोय नमः पकड मे न आना, फेनयुक्त होना, भावयुक्त रोना, साथ में बिना , अनि आठ दोष इनके अन्दर आते है।
वस्ति यन्त्र की प्रयोगविधि :-चम्नि को नंग के माय भली प्रकार बाघ कर उसे दवा कर, हवा को निकाल कर, उसको मिटनो को टीफ पर रखे, उसके मुख को अगुठे मे दवा कर बोर नेत्र के अग्रभाग में पड़ी हुई भी वत्ति को पृथक कर ले । तदनन्तर जिस रोगी में वस्ति का प्रयोग करना होगा तैल का अभ्यग कराके और गुदा को स्निग्ध करके उनके मन और मल मा त्याग कराके, ऐसे समय में जब कि उमको तेज भूख न लगी हो नय नि यात्रा प्रयोग करना चाहिए । रोगी को उनके वाम पार्च पर नुनपूर्वक लिटा कर, बार पैर को पूरी तरह से फैला कर और दाहिने पैर को मोड कर, बाएं पैर के ऊपर रखकर, इस आसन में वस्ति का प्रयोग करे। रोगी को ममान गमन पर या सिर को किंचित् झुका कर, या अपने हाथो को तकिया बनाकर (सिर को बाएं हाथ पर रस कर) सीवे शरीर लेटना चाहिए ।
रोगी की गुदा का स्नेहन करके नेत्र के नतुर्थीग भाग को पृष्ट बग की रेखा में प्रविष्ट करे, प्रविष्ट करते समय नेत्र का कम्पन नही होना चाहिए, साय ही कार्य मे शीघ्रता भी करनी चाहिए। वन्ति में एक ही पीडन ( दवाव ) से पूरे औपच द्रव्य को भीतर में पहुँना देना चाहिए, क्योकि उससे वायु प्रदेश (Air Bubbles) का भय लगा रहता है।
वस्ति यन्त्र के अन्यथा प्रयोग के दोप यदि नेत्र का तिरछा प्रोग किया जाय तो औषधि धार से नहीं जा पाती, यदि नेत्र के प्रवेश काल में कम्पन हो तो उससे गुदा में व्रण होने की सम्भावना रहती है। यदि धीरे-धीरे प्रयोग किया जाय तो औपधि आशय तक पहुँच ही नहीं पाती, यदि बहुत जोर से