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भिपकर्म-सिद्धि ९५° के तापक्रम के जल से स्नान कराना। यह स्नान ज्वर, जोर्णज्वर तथा वेचैनी मे लाभप्रद होता है।
(२) उष्ण स्नान (Warm bath ) ९५०-१००° के तापक्रम के जल ने स्नान कराना श्वसनिका गोथ और फुफ्फुस पाक मे लाभप्रद है।
(३) अत्युप्ण स्नान (Hot bath)-जल का तापक्रम १००-१०६० तक ! कार्य उपर्युक्त की भाँति । अधिक शक्तिशाली ।
(४) अत्युषण पाद स्नान ( Hot foot bath ) प्रतिश्याय, नासागत रक्तन्त्राव, गीत के कारण के रज त्राव के चालू करने के लिए अत्युष्ण जल से पैरो का घोना।
(५ ) अति उष्ण कटि-स्नान ( Hot sitze bath ) आर्तवादर्शन, कृच्छानव, गीतजन्य बार्तवरोध और मूत्राशय गोथ में निर्दिष्ट है। थोडा सर्पप डालकर खौलाया जल अधिक लाभप्रद होता है।
(६) बत्युष्ण जल प्रोक्षण-( Hot water sponging ) मिर, गंख प्रदेश और गर्दन को जल से सेक करना प्रतिश्याय में होने वाले गिर गूल का गमन करता है।
(ख) वाष्प तान ( Vapour bath)-उत की दिनी कुर्सी पर रोगी को वैठाकर ऊपर से कम्बल बोवाकर रोगी को पूर्णतया ढक दे। मिर का भाग खुला रखें। कुर्सी के नीचे एक स्प्रिट लैम्प जला कर उस पर पानी से भरा वर्तन रख कर खोलावे । उसके वाष्प मे रोगी का स्वेदन होने लगेगा। यह वाप्प-औपषियों को वौला कर मीपव (Medicated ) या निरीपर (Non medicated) भी हो सकता है। इस स्वेद का उद्देश्य और परिणाम उप्ण जल स्नान सदृश ही है। इसके पुनः दो प्रकार होते है। हनी स्लान ( Russian bath) जिनमें विभिन्न तापक्रम के वाप्प ने स्वेदन
और तुर्क स्नान (Turkish bath ) जिसमे गुप्क वायु से स्वेदन किया जाता है। आमवात, वातरक्त, सन्धिवात, त्वचा एवं वृक्क रोगो में लाभप्रद । प्राचीन नाडी स्वेद ( Medicated Vapour bath ) का ही प्रतीक है।
(ग) उष्ण वायु स्नान :-रोगी को कम्बल से भावृत करके उसके भीतर गर्म हवा को प्रवेग कराया जाय या एक लकड़ी के बने फ्रेम में कई विद्युत के वल्व लगा कर उनके विस्तर पर रख दिया जाय तो स्थानिक वायु उष्ण होकर स्वेदन में समर्थ होगी। इस प्रकार की स्वेदन-विधि के विभिन्न प्रकारो के साधनो का उल्लेख मायुर्वेद के ग्रन्थो में पाया जाता है जिनका एकैका वर्णन आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।