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भिपकर्म-सिद्धि घातुओ के वढाने के लिये स्नेह पिलाना हो तो भोजन के साथ, मद्य से या मासरम के साथ पिलाना चाहिये।
यदि रोग के चिकित्सा-काल मे वढे हुए दोप ( वात या पित्त ) के गमन के लिये ( मशमन क्रिया मे ) यदि स्नेह पिलाना हो तो गरीर के अधोभाग के रोगो जैसे hip joint disease मे भोजन के पूर्व, मध्य भाग के शरीर के रोगो मे जैसे T B. of cecum and colon भोजन के साथ और उर्च भाग के रोगो जैसे T. B of lung मे भोजन के उपरान्त पिलाना चाहिये। __ रोग के मगमन और वृहण कार्यों मे आजकल बच्छ स्नेह का विधान बहुत प्रचलित हो गया है । प्रयोजन समान होते हुए भी आधुनिक शब्दो मे उसकी व्याख्या दूसरे ढग से की जाती है। उदाहरणार्थ-गरीर के वल और भार-क्षय पैदा करनेवाले रोग ( wasting diseases ), क्षय ( tuberculosis), जीवनिक्ति हीनता विगेपत. ए, डी एवं डी २ ( avitaminosis ) असह्यता या अनूर्जता ( allergic state ), दुर्बलता (ill-health & debility), उपसर्गज व्याधियो से रक्षण की शक्ति बढ़ाने के लिये ( to combat the infectious diseases ), अभोजन या हीनभोजन ( dietetic deficiency ) तथा वालको के अङ्गवर्धन, गर्भिणीके पोपण आदि बातो का ध्यान रखते हुए स्नेह-पान अर्थात् ( fat or water soluble vitamins A D ) का प्रयोग करने का निर्देग किया जाता है।
जीवतिक्ति ए० और टी० प्रचुर मात्रा मे जान्तववसा, घी, दूध, मक्खन, मलाई तथा मत्स्य यकृत में प्राकृतिक रूप में पाया जाता है। इन प्राकृतिक द्रव्यो के उपयोग से उनकी पूर्ति भी संभव है। आजकल कई वने वनाये योग केपलर फुड, स्काट्स एमल्गन, गार्कोफेराल, पल्मोकाड आदि सुलभ है। इन स्नेहो का उपयोग उपर्युक्त आयुर्वेदीय दृष्टि से स्नेह-पान के अतिरिक्त कुछ नहीं ! प्रयोजन रोग का संगमन और गरीर का वृहण दो ही है।
स्नेहन का पाश्चात्कर्म
आहार एवं पान-यदि स्नेहपान के पश्चात् स्नेह का पाक न हो पाया हो या उसके पाक मे का हो तो उस व्यक्ति को उष्ण जल पिलाना चाहिए । स्नेह के जीर्ण होने के बाद उस मनुष्य को गर्म जल से स्नान करावे । थोडे ने चावल के कणो को खूब गलाकर बनाई हुई यवागू को यथेच्छ पिलावे। सुगन्ध और स्नेह से रहित यूप और मामरस पिलावे । विलेपी भी किंचित् घी डालकर पिलाई जा सकती है । कहने का तात्पर्य यह है कि स्नेहपायित व्यक्ति को स्नेहकाल मे