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भिपकर्म-सिद्धि
वेधन ( Puncturing ) (७) विस्रावण ( Blood letting ) तवा (८) सीवन (Suturing ) इन आठ कर्मों का समावेश हो जाता है। इनके अतिरिक्त शल्यचिकित्सा मे और भी चोवीन प्रकार के यन्त्रो के कर्मा का उल्लेख हुया है जिसका विस्तारभय मे उरलेस नहीं दिया जा रहा है। कभी-कभी कायचिकित्सा के क्षेत्र में भी रक्तवित्रावण या गिरावेव कर्म की आवश्यक्ता पड़ती है। जैसे श्लोपद मे, सर्पविप में, नया उच्च रक्तनिपीड मे। ___इन कर्मों का ज्ञात या अज्ञात रूप में नभी चिकित्सक प्रयोग करते है। परन्तु ज्ञात के स्थान पर अनात रूप से ही अधिक त में प्रयोग चलता है। कारण यह है कि रोगी को चिकित्सा करने में दो ही मूलभूत सिद्धान्तो का आश्रय लेना पडता है । (१) संशोवन तथा ( २ ) वगमन । नगोवन कारों मे पचकर्मों के अतिरिक्त कोई दूसरा चारा नहीं है । परन्तु सगमन के विविध साधन है। यदि संगमन क्रिया से ही लाभ हो जाय तो मगोधन के प्रपचो से रक्षा हो जाती है। रोगो से उत्पन्न विषमयता मे सिद्धान्तत विपो के निकालने का उपाय सगोधन द्वारा तथा मनिर्गत शेप विपी की चिकित्सा नंगमन क्रियायो द्वारा करनी चाहिए । सर्वोत्तम चिकित्मा वही है जो दोनो का आश्रय करके चले । आज के युग में मंगोधन का कार्य नाममात्र ही अवशिष्ट है जैसे-प्रकृति से ही स्वत रोगी को वमन या रेचन होने लगे अथवा कुछ साधारण एनीमा दे दी जावे या कुछ रेचक योपवियो का प्रयोग रोगी में कर दिया जावे । वस्तुत. यह इस तरह के कर्म सगोधन न होकर एक प्रकार के संगमन ही होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आज की वैद्यपरम्परा में एकमात्र संगमन चिकित्सा ही प्रधान अस्त्र शेप रह गया है। आज की चिकित्सकपरम्परा में अधिकतर संशमन के द्वारा ही चिक्त्मिा कर्म प्रचलित है। उदाहरणार्थ मधुमेह के रोगी मे चन्द्रप्रभावटी का प्रारंभ से ही प्रयोग । इसका परिणाम यह हो रहा है कि चिकित्मा पूर्ण नहीं हो पाती है और रोग का मूलोच्छेद भी नहीं हो पाता । प्राचीन युग मे आचार्य मगोधन एव मगमन उभयविध कर्मों के द्वारा चिकित्सा का समर्थन करते थे। जैसा कि निम्निलिखित उक्ति से स्पष्ट है :
लघन और पाचन के द्वारा कुपित दोपो का शमन करने से यह संभव है कि वे समय पाकर पुन कुपित हो जावे, परन्तु सगोवन के द्वारा दोपो को निकाल कर जिस रोग का गमन किया जाता है, उनसे दोपो के पुन उभडने की संभावना नही रह जाती है।